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________________ ( १८० ) में उस सुख के वेदन अर्थ में अनुभव शब्द का प्रयोग हुआ है । यथाअव्वाबाहं सुक्खं अणुहोंती सासयं सिद्धा अर्थात् सिद्ध भगवान् शाश्वत् अव्याबाध सौख्य का अनुभव करते हैं । वेदन शब्द का कर्मफल के भोग के अर्थ में बहुलता से प्रयोग हुआ है और आत्मवेदन के अर्थ में प्राय: अनुभव शब्द का । ३. चेतना को कषाय विकृत करता है । बोध चेतना मोह के निमित्त से अज्ञान - विपरीत बोध के रूप में परिणत होती है और वेदन चेतना भी मोह से रंजित होने पर ही राग-द्वेष के रूप में परिणत होती है । मोह के ही रूप हैं । ४. 'एव' शब्द से यह निश्चय कराया है कि चेतना विकृति ही प्रधान है । उसकी विकृति से ही सुख आदि अन्य गुणों में विकृति आती है और चेतना की शुद्धि होने पर अन्य गुण भी शुद्ध हो जाते हैं । चेतना की विकृति के कर्ता निजस्वरूप नहीं कसाया जइ अप्पाणं, तया बुद्धि कहं हरे । after अप- सरूवाते, जीवं मढं करेंति ते ॥ १२०॥ यदि कषाय आत्मा के ( अपने स्वरूप ही ) हों तो वे बुद्धि = आत्मभान को हरण कैसे कर सकते हैं । वे जीव को मूढ़ करते हैं, इसलिये वे आत्म-स्वरूप नहीं हैं। 1 टिप्पण - १. जो जीव को बेभान करता है, वह अस्वाभाविक होता है । जैसे - नशा वैसे ही कषाय भी जीव को मूढ़ बना देते हैं—बेभान करते हैं । २. जो विवेक शक्ति को नष्ट करता है, वह भी आत्म-स्वरूप नहीं हो सकता । जैसे— वस्तु की सारवत्ता को नष्ट करनेवाला पदार्थ उसी पदार्थ का अंश नहीं होता । कषाय जीव के साररूप गुण बुद्धि को ही नष्ट करते हैं । ३. कषाय जीव की विकृति के हेतु हैं । अतः पररूप हैं । कषाय की पर - रूपता - अनात्मता मोहंसा चैव कसाया ते, मोहो कम्मं तु तं जडं । जीवस्सेव विगारा ते, तहावि ते तन्निमत्तया ॥१२१॥
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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