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________________ ( १८१) वे कषाय मोह के अंश ही है । मोह (आठ कर्मों में) एक कर्म है और वह कर्म तो जड़-पुद्गल है । यद्यपि वे कषाय (के भाव) जीव के ही विकार हैं, तथापि वे पुद्गल के निमित्त से उत्पन्न होते हैं, (अतः पर हैं) ।. . टिप्पण-१. कषाय मोहकर्म के उदय से होते हैं। कर्म मात्र पौद्गलिक होते हैं । अतः मोह भी पौद्गलिक है । २. पुद्गल जड़ हैं। अतः वे आत्म रूप नहीं है-पर हैं । अत: मोह कर्म भी पर है। ३. मोह पर है तो कषाय भी पर हैं। क्योंकि तथारूप कर्मों के उदय से ही क्रोध आदि विकारों का आविर्भाव होता है। ४. क्रोध आदि भाव जीव में ही होते हैं । अतः वे जीव के ही अंश हैं । परन्तु वे जीव के स्वाभाविक अंश नहीं हैं। ५. क्रोध आदि के भाव जीव के ही विकार हैं । किन्तु वे पौद्गलिक कर्म के निमित्त से ही होते हैं और पुनः पौद्गलिक कर्मों को ही ग्रहण करने में निमित्त बनते हैं। इसलिये वे पर-जन्य और पर के जनक ही हैं । ६. जो पर से ही उत्पन्न होकर पर को ही उत्पन्न करता है, वह निज अंश कैसे हो सकता है ? अतः उनमें अपनत्व आरोपित नहीं करना । जे वि निमित्तया होति, विगइणो विमोहगा । असुद्ध-जीव-पज्जाया, ते विभावा अनत्तगा ॥१२२॥ जो भी (भाव) निमित्ति से उत्पन्न होते हैं, वे विकृति रूप और विमोहित करनेवाले हैं । वे जीव के अशुद्ध पर्याय हैं । इस लिये वे विभाव हैं-अनात्मरूप हैं। टिप्पण-१. एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य के निमित्त से जो भी भाव उत्पन्न होते हैं, वे उस द्रव्य के स्वस्थभाव नहीं हो सकते । २. जो स्वस्थभाव नहीं होते हैं, वे विकृति रूप होते हैं-बेभान करनेवाले होते हैं । ३. अशुद्ध निश्चयनय से क्रोध आदि विकृत आदि भाव जीव के ही अशुद्ध पर्याय हैं। क्योंकि जीव यदि स्वयं उन पर्यायों में परिणत नहीं होता तो वे पर्याय जीव
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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