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________________ ( १७९ ) टिप्पण - १. कषायों में सुख-भाव की प्रतीति होती है । परन्तु उसके अग्राह्यत्व के चिन्तन से वह नष्ट हो जाती है । २. अपने कषायों में जीव पक्षपाती बन जाता है । उसे अपने कषाय बुरे नहीं लगते हैं-भले ही लगते हैं । अतः उन्हें क्षन्तव्य भी मानता है । अनुपादेयत्व-पश्यना से इस पक्षपातवृत्ति का अभाव हो जाता है । पक्षपात के अभाव में उनकी पकड़ और बचाव की भावना भी मरने लगती है । जिससे कषाय दुर्बल होते ही हैं । ६. अनात्मता - पश्यना-द्वार चेतना की विकृति के हेतु — चेयणप्प-सरूवं हि, णाण- दंसण-वेयणा । तं चैव विडं किच्चा, कसाओ किल मोहइ ॥ ११९॥ ज्ञान, दर्शन और वेदन रूप चेतना आत्म-स्व रूप ही है । कषाय उसको ही विकृत करके मोहित करता है । टिप्पण - १. आत्मा का स्वरूप क्या है-इस विषय में दार्शनिकों में मतभेद है । किन्तु जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा का स्वरूप चेतना है; क्योंकि यह आत्मा का असाधारण गुण है और इसी गुण के कारण इसका जड़ पदार्थों से पार्थक्य है । २. चेतना के तीन रूप हैं-ज्ञान = विशेष बोध, दर्शन = सामान्य बोध और बेदन = अनुभव, भोगना । प्रश्न -- वेदन चेतना का अंश होते हुए भी आत्मा का निजस्वरूप नहीं हो सकता, क्योंकि जो निजस्वरूप होता है, वह त्रिकाल विद्यमान रहता है। किन्तु वेदन का सिद्धावस्था में अभाव हो जाता है । इसलिये वह स्वरूप कैसे होगा ? उत्तर -- सिद्धावस्था में कर्म-वेदन नहीं है, किन्तु स्वसंवेदन होता है । यदि आत्मवेदन नहीं हो तो सुख कैसे होगा ? सिद्धों में सुख गुण है । आगमों
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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