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________________ ( १११ ) प्रदान करता है-छिछोरपन नहीं और साधना के अंग रूप वाद भी 'किसीसे टकराने रूप नहीं होता है। वह तो तत्त्व का उद्घाटन करता है और जिज्ञासा की वृद्धि तथा ज्ञान का विकास करता है । ६. पदार्थों का संग्रह करना-परिग्रह है। वह लोभ कषाय से प्रेरित होता है। पदार्थों का संग्रह पितृ-तुल्य परिपोषक लगता है-अति उपयोगी लगता है। मनुष्य को परिग्रह गौरव रूप लगता है । जीवन-यापन के लिये संग्रह आवश्यक होता है। किन्तु संग्रह को अत्यधिक महत्त्व लोककषाय आदि के कारण प्राप्त हो जाता है । जिससे कलह आदि उत्पन्न होते हैं। ७. कषाय-प्रवृत्ति से सद्गुण दुर्गुण रूप में और दुर्गुण सद्गुण रूप में प्रतीत या परिवर्तित होने लगते हैं। यहाँ उनके कुछ उदाहरण दिये गये हैं। इनके लिये आलोकन निरीक्षण मात्र कारगर नहीं होता है, किन्तु चिन्तन निरीक्षण से ही दष्टि-विपर्यास को पकड़ा जा सकता है। इसीलिये उसकी शोध करने की प्रेरणा दी गयी है। निरीक्षण का फल बताया जाता है अप्पे गाणं कसायाणं, सरुवस्स सई धिई । मंदया अवसित्तं च, होति निरिक्खणेण उ ॥५॥ निरीक्षण से अपने आप में (होते हए) कषायों के स्वरूप का ज्ञान, स्मृति, धृति, मन्दता और अवशित्व होते हैं। टिप्पण-१. निरीक्षण के पाँच फल बताये हैं-कषायों का स्वरूपज्ञान, स्वरूप-स्मृति, कषाय-धृति, कषाय-मंदता और कषाय-अवशित्व । आत्मा (=निरीक्षण कर्ता को अपने) में पाँच फल और पर में 'पहले के तीन फल होते हैं । २. निरीक्षण करने से अपने में कषाय के स्वरूप का ज्ञान होता है। 'ये-ये कषाय की वृत्तियाँ हैं और ये-ये आत्मवृत्तियाँ-कषायेतर वृत्तियाँ हैं-यह बोध होता है। इसीप्रकार अन्य जनों की काषायिक वृत्तियों का भी ज्ञान होता है। जिससे
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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