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________________ ( ११० ) से सम्बन्धित आचार-पद्धति का निर्वाह न हो पाने पर वे बन्धन लगने लगते हैं । लम्बे समय से साधकों के द्वारा तथारूप आचारपद्धति के पाले जाने के कारण समूह में भी वैसी चेतना का निर्माण हो जाता है। अतः उस आचार-पद्धति के भंग होने पर लोगों में टीका-टिप्पणी होने लगती है। और साथ ही हृदय में भी बात कसकने लगती है । अपने गौरव की सुरक्षा के लिये तब उन्हें परके लादे हुए बन्धन कहकर-उन्नति में बाधक और कुण्ठा की उत्पादक वर्जना बताकर, उन्हें तोड़ने में शौर्य दरसाकर क्रान्ति की नींव डाली जाती है । वस्तुतः यह मान, माया और क्रोध कषाय का मिला-जुला कार्य रहता है और जिसकी जड़ रहती है-इच्छा के परित्याग न कर पाने रूप लोभ में। ३. क्रान्ति की बात तो जोरावर व्यक्ति करते हैं। परन्तु जो ऐसा नहीं कर पाते हैं और अपनी दुर्बलता को छिपा भी नहीं पाते हैं, वे धीठता को सरलता का बाना औढ़ाकर अपने मान को बचाने की चेष्टा करते हैं। वे कहते है-'हम छिपाकर पाप नहीं करते हैं, चौड़े-धाड़े करते हैं। कम से कम हम ढोंगी तो नहीं हैं।' फिर ऐसे व्यक्ति को प्रामाणिक साधक भी ढोंगी, मायी आदि प्रतीत होने लगता है और उनकी छिद्रान्वेषण की ही वृत्ति हो जाती है। वे निन्यानवे गणों में एक दुर्गण खोज ही लेते हैं। ४. मान आदि कषायों के कारण कलह, लड़ाई-झगड़े आदि होते हैं। उनपर सैद्धान्तिकता का मुलम्मा चढ़ाकर वीरता मानने की वृत्ति पैदा हो जाती है। सत्पक्ष की सुरक्षा का साहस अलग बात है। वह काषायिक वत्ति नहीं होती। किन्तु कलह को शौर्य मानना अलग बात है । उसमें मेरा माना हुआ ही सच्चा है'-यह वृत्ति रहती है। ५. वाद तत्त्व-उपलब्धि का माध्यम हो सकता है। वाद पारस्परिक चर्चा के रूप में स्वाध्याय रूप में तत्त्व-ज्ञान को दृढ़ करने का हेतु भी हो सकता है। किन्तु जब वह किसी को नीचा दिखाने के लिये किया जाता है, तब वह कषाय, प्रेरित हो जाता है। फिर उसमें पाण्डित्य का आरोपण हो जाता है और प्रत्येक से टकराने की वृत्ति होती है। वास्तविक पाण्डित्य गांभीर्य
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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