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________________ ( ११२ ) उनसे उलझने के भाव से छुटकारा मिलता है। ३. निरीक्षण करते रहने से कषायों के स्वरूप की स्मृति बनी रहती है। अतः कषायों के उदित होते ही-'यह कषाय-प्रवृत्ति हो रही है'- यह भान प्रायः होने लगता है। यह भान यदि दढ़ रूप से बना रहता है तो कषाय का प्रहार तीव्र नहीं हो पाता है। पर की कषाय-प्रवृत्ति का भान रहता है तो स्वयं में उसकी प्रतिक्रिया पैदा न हो-ऐसी सजगता पैदा हो सकती है। ४. कषायों का स्वरूप-ज्ञान और उसकी स्मृति से युक्त निरीक्षण चलता रहता है तो कषाय और कषाय-प्रवृत्ति का निःसंशयात्मक होता है। यह कषाय ही है ?' 'यह कषाय-जनित ही प्रवृत्ति है' यह कषाय-धृति अर्थात् कषायों की वास्तविक बौद्धिक पकड़ होती है। जिससे दृष्टि-विपर्यास दूर होता है और अन्य के विषय में यह धृति होती है तो उनकी अनुमोदना आदि से बचा जा सकता हैभ्रमनिवारण किया जा सकता है। ५. जब कषाय का उदय हो रहा हो और उसी समय में आलोकन प्रारंभ हो जाता है, तब या तो आगे उसकी प्रवृत्ति चल ही नहीं पाती है या बिल्कुल मंद हो जाती है । जिससे प्रतिक्रिया भी अत्यन्त हलकी रूप में स्व-तक की सीमित रह जाती है। ६. कषायों के निरीक्षण से बलवान नहीं हो पाते हैं वे। जिससे वे स्व-उपयोग को चुका नहीं सकते हैं। अतः उनका कुछ भी बस नहीं चलता है। ३. हानि - पश्यना - द्वार कषायों के द्वारा होनेवाली हानि का चिन्तन इतना दृढ़ हो कि वे अनुभव-गम्य जैसे हो जायँ उसे हानि-पश्यना कहते हैं । जैसेजहर के विषय में जीव की वृत्ति । हानि-चिन्तन की प्रेरणा-- 'ण कसाया कया होंति, कत्थ वि य हिएसिणो ।' इय जाणिय तेसि तु, हाणि चितह साहगा! ॥५९॥
SR No.022226
Book TitleMokkha Purisattho Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmeshmuni
PublisherNandacharya Sahitya Samiti
Publication Year1990
Total Pages338
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size16 MB
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