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पालक नहीं होता । जो पांच आचार में से किसी एक भी आचार का ठीक तरह से पालन नहीं करता, वह आचार्य पद पर रहने के योग्य नहीं है ।।
अर्थ संग्रह की एक पद्धति साधुओं में यह भी चल पड़ी है कि वे स्वयं तो रुपया पैसा नहीं लेते, किन्तु संस्थाओं के लिए संग्रह करते कराते हैं । तीर्थ निमार्ण, मंदिर निमार्ण स्थानक, उपाश्रय, स्मारक, पुस्तकालय, विद्यालय, औषधालय, पुस्तक प्रकाशन, अन्नदान आदि कार्यों के लिए द्रव्य का संग्रह करते कराते हैं । कई साधु तो खुद ऐसे अर्थ संग्रह के सावध कार्यों की योजना बनाते और क्रियात्मक रूप देते हैं और कई गृहस्थों के प्रभाव में आकर करते हैं । लोग, साधु के प्रभाव एवं विश्वास में आकर पैसा दे देते हैं, जब उसका परिणाम सामने आता है, तब वे कहते हैं कि-"हम तो जानते थे कि हमारे पैसे का सदुपयोग होगा । हमने तो श्री......महाराज की बातों में आकर उन पर विश्वास करके रुपये दिये थे और यहाँ सब चौपट हो गया ।" ___कहीं, कहीं उस पैसे में से कुछ द्रव्य साधु की इच्छानुसार खर्च होता है ।' कुछ भी हो, धन प्राप्त करना, कराना और उसका अनुमोदन करना, भगवान् महावीर के निग्रंथ साधु के लिए अधर्म है, उसके परिग्रह, त्याग, महाव्रत के विरुद्ध है, भले ही वह किसी भी कार्य के लिए हो ।
जब एक सामान्य साधु और श्रमण भूत श्रावक भी द्रव्य संग्रह करने कराने का त्यागी होता है, तब संघनायक आचार्य स्वयं अर्थ संग्रह करे, करावे, उसके आय-व्यय का हिसाब देखे, व्यवस्था में प्रेरक, विधायक और निरीक्षक बनें, धन में गड़बड़ी 1. ढोलियों को रुपये दिलवाये और उन रुपयों से उनके साथ रहे मजुरों ने सिनेमा देखा।
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