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________________ आचार्य की अधीनता में संयमप्रिय साधुओं को नहीं रहना चाहिए । उनका त्यागकर पृथक् होकर अपने संयम की आराधना करनी चाहिए । ऐसा वही कर सकता है, जिसमें आचारप्रियता हो, संस्कृति की उच्चता बनाये रखने की भावना विकसित हो और आत्मबल हो । जत्थ य अज्जासंगी आयरिओ सव्वदव्वसंगहिओ | उम्मग्गपक्खकरणो अणज्जमिच्छव्व मुत्तव्वो ।। ८९ ।। अर्थात् जिस गच्छ का आचार्य साध्वियों का संग - विशेष परिचय (अधिक सम्पर्क) रखता हो, सभी प्रकार के द्रव्य का संग्रह करने वाला हो और उन्मार्ग का पक्ष करने वाला हो, तो ऐसे आचार्य को और उसके गच्छ को अनार्य - मिथ्या ( अज्ञानी दुष्ट) की तरह त्याग देना चाहिए ।। ८९ ।। साध्वियों से विशेष सम्पर्क रखने वाले आचार्य में यदि लोकलाज भी शेष हो, तो वे या तो ऐसे संसर्ग का त्याग ही कर देते हैं या अपनी अयोग्यता का विचार कर उस पद से ही पृथक् हो जाते हैं । जो आचार्य स्वयं स्त्रियों से विशेष सम्पर्क रखता है, तो उसके अंतेवासियों में संयम, त्याग और ब्रह्मचर्य का पालन कैसे हो सकता है ? कोई वृद्ध रोगी या कोई धर्म प्रिय बचकर रहे, तो भले ही, शेष सदस्य तो निःशंक असंयमी हो जाते हैं । I 1 संग्रह खोर आचार्य । जो आचार्य स्वयं संग्रह खोर हो, अनावश्यक उपधि बढ़ाता रहता हो, अर्थ संग्रह रखता हो, तो वह स्वयं आचारनिष्ठ नहीं रहता और परिग्रही बन जाता है । जब वह अपने 'सर्वथा परिग्रह त्याग' महाव्रत का पालन नहीं कर सकता, आचारहीन आचार भ्रष्ट बन जाता है । वह चारित्राचार का तो वह 79
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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