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बज्झब्भंतरगंठिं धरइ सया भासइ पुण जणाणं । दूसमदोसेण जओ समणाणं दुल्लहसामग्गी ||८४|| वे प्रवचन के नाम पर अपने व्याख्यान में कामोद्दीपक अथवा काम संबंधी विषय वाली, हास्यजनक और विस्मय कारक विकथा करके भोले व अनजान लोगों का मनोरंजन करते हैं और सदैव बाह्य ग्रंथी (परिग्रह) और आभ्यंतर ग्रंथी ( मिथ्यात्व कषायादि) धारण करते हैं और लोगों से कहते हैं कि इस विषमकाल में साधुओं को शुद्ध संयम के योग्य सामग्री मिलनी दुर्लभ हो गयी है ।।८३-८४ ।।
धर्मोपदेश के नाम पर विकथा पहले भी बहुत हुई । काम शास्त्र पर व्याख्यान हुए । नर्तकियों के नृत्य, गान और नाटक भी हुए । कुछ ढ़ाल चोपाइयें भी ऐसी बनी कि जिसके सुनने से उपशम भाव के बनिस्बत मोह - भाव बढ़े । धर्मोपदेश में तत्त्वनिरूपण एवं शांत रस के प्रचार के बनिस्बत विकथा को विशेष स्थान मिला । आज भी विकथा का विशेष प्रसार है । देश कथा, राज कथा, सामाजिक कथा और मिथ्यात्व वर्द्धक कथा कई स्थानों पर होती रहती है। दर्शन विघातक और चारित्र विघातक कथाएँ भी होती है । जिस प्रकार उस समय स्वच्छंदता फैल गयी थी, उसी प्रकार अभी भी है । इस समय विशेषता यह है कि रक्षक पद धारियों में से ही ऐसे दर्शनविघातक उत्पन्न हुए हैं जो जैन इतिहास में अद्वितीय होंगे। वे इस धर्म की बुनियाद को ही गलत बताने की धृष्टता कर रहे हैं । जैनधर्म जिसे दुराचार मानता है, उसे वे सदाचार मानते मनवाते हैं । जैसे माईक, मोबाईल, लेपटोप, लाईट, लैट्रिन, T मजदूर,
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