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________________ एयारिस दुव्वयणं भासंता अप्पणी पमायंता । बुहुंति भवसमुद्दे बुड्डावंता परेसिं पि ॥८२॥ इस प्रकार के दुर्वचन बोलने वाले वे वेशधारी, स्वयं प्रमाद में पड़े हुए हैं। वे खुद भवसागर में डूबते हैं और दूसरों को भी डुबाते हैं ।। ८२ ।। आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी उन कुगुरुओं के उपरोक्त बचाव को अस्वीकार करते हुए उन्हें मिथ्याभाषी = दुर्वचन बोलने वाले व प्रमादग्रस्त बतलाते हैं । यह ठीक है । यद्यपि वर्त्तमान समय में मनुष्यों की मनोवृत्ति ऋजु -प्राज्ञ नहीं है, वक्र - जड़ है । काल भी मोक्ष प्राप्ति के योग्य नहीं है, संहननादि भी वैसे नहीं रहे, परिहार विशुद्धादि चारित्र का भी अभाव है । तथापि संयम साधना हो सकती है। साक्षात् मोक्ष नहीं हो तो संयम की ठीक साधना करके एक भवावतारी तो " बना जा सकता है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र का भावपूर्वक पालन तो हो सकता है । मिथ्यात्व और अविरति से बचा जा सकता है । प्रमाद से भी बहुत कुछ छुटा जा सकता है । यदि इस समय के अनुसार सामायिक छेदोपस्थापनीय चारित्र का पालन नहीं करे, महाव्रत, समिति, गुप्ति और समाचारी के प्रति उपेक्षा करता रहे, तो वह असंयमी है । वह पंचमकाल और संहननादि की युक्ति उपस्थित करके अपने असंयम का बचाव करना चाहता है । उसका बचाव झूठा है । वह उस चालाक चोर के समान है, जो न्यायालय के सामने अपने बचाव मैं कहता है कि- "मैं ही क्या, सारा जमाना ही चोर है। आप भी चोर हैं। आप आज पांच मिनट देर से आये, यह भी चोरी है ।" काल का प्रभाव सभी पर पड़ता है । उसके प्रभाव से एक 71
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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