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________________ मोक्ष प्रास करते थे, अब मोक्ष प्रास करना नहीं रहा-उसका विच्छेद हो गया, तो विधिमार्ग भी कहां रहा ? ।।७९।। जिनेश्वर ने कहा है कि इस काल में संहनन, धैर्य और बल की हानि हो गयी है, ऐसी स्थिति में शुभ और अशुभ (शुद्धाचारी और शिथिलाचारी) का भेद रहा ही कहां? किसे चारित्र संपन्न और किसे चारित्र हीन कहा जाय ? निश्चय पूर्वक इस प्रकार का आग्रह कौन कर सकता है ? ।।८।। इसलिए बहुजन समुदाय ने जो प्रवृत्ति स्वीकार की, उसी लोक-प्रवाह (प्रवृत्ति) के अनुसार धर्म करना चाहिए। यदि अपना मन निर्मल है तो. सभी स्थानों (वेशोपजीवियों और संयमियों) में पुण्यफल होता है ।।८१।। अपना बचाव सभी करते हैं । झूठे के पास भी तर्क एवं युक्ति होती है । इस प्रकार का बचाव अब भी होता है । कई यह तर्क भी उपस्थित करते हैं कि हलवा मिले, तो वह खाना और हलवा नहीं मिले, तो रूखी-सूखी रोटी खाकर भी जीवन बचाना समझदारी है । यदि कोई दुराग्रही हठ पकड़कर बैठ जाय कि-मैं तो हलवा ही खाऊँगा, इससे कम-रूखी-सूखी रोटी कभी नहीं खाऊँगा, तो उस हठी को मरना ही पड़ेगा । प्राण बचाने के लिए शुद्ध जल नहीं मिले, तो गंदा पानी पीकर ही जीवन बचाना पड़ता है । इसी प्रकार अभी शुद्धाचारी साधु नहीं मिले, तो जैसे साधु हों, उन्हीं की उपासना करके धर्म आराधना करनी चाहिए । यदि इनका भी अवलम्बन छोड़ दिया, तो धर्म से ही हाथ धोना पड़ेगा । इस प्रकार की कई कुयुक्तियाँ उपस्थित की जाती है । इसके उत्तर में आचार्यश्री कहते हैं कि 70 -
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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