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का ह्रास करवा रही है।
बाला वयंति एवं वेसो तित्थंकराण एसो वि | नमणिज्जो धिद्धी अहो सिरसूलं कस्स पुक्करिमो ||७६|| __ वे अज्ञानी कहते हैं कि तीर्थंकरों का यह (साधु) वेश ही वंदनीय है । इस प्रकार बोलने वाले को धिक्कार है । उनके ये वचन मस्तक में शूल की तरह पीड़ा करने वाले हैं । इस दुःख की पुकार कहाँ किस के आगे करें ? ।।७६ ।।
वेश की अवंदनीयता जिनमें चारित्र का गुण नहीं होता, वे वेश की ओट में अपना गुजर चलाते रहते हैं और दुराचरण करते रहते हैं । वे भोले जीवों को भरमाते हैं और कहते हैं कि छद्मस्थों के लिए वेश ही प्रमाणभूत है । किस के मन में क्या है, यह कौन जानता है ? धर्म का संबंध आत्मा से है और आत्मा किसी को दिखाई नहीं देती । वेश ही सर्वत्र जाना जाता है। उपासकों को धर्म सुनने और प्रेरणा लेने से मतलब है, हमारे चारित्र से नहीं । हम तीर्थंकर भगवान् का वेश धारण करके उनके धर्म को चला रहे हैं। हमारे धर्म प्रचार और परोपकार का कार्य, कम नहीं है । जिस प्रकार सरकार का दिया हुआ वेश पहिनकर कोई अछूत भी आ जाय, तो उसकी आज्ञा माननी होती है । उस समय यह नहीं देखा जाता कि यह सरकारी नौकर कैसा व किस जाति का है ? इसी प्रकार हमारे वेश को ही देखकर आदर सत्कार देने की जरूरत है, चारित्र देखने की जरूरत नहीं है ।। 1. सरकारी नौकर भी अपने वेश के विपरीत आचरण करते पकड़ा जाता है तो सरकार उसे नौकरी से निकाल देती है, उसका अधिकार छीन लिया जाता है, वैसे ही ऐसे वेश विडंबको का वेश छिन लिया जाना चाहिए।
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