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________________ मनुष्य भव भी बिगड़ जाता है । वे अपनी दुर्गति से प्रेरित होकर धर्मघातक बन जाते हैं और बजाय आराधना के विराधना में लगकर पाप की गठरी बांध लेते हैं । जो मनुष्य भव, आराधना की बहुमूल्य कमाई करने का साधन बन सकता था, उसीको वे पाप की कमाई करके बिगाड़ देते हैं, व्यर्थ ही गंवा देते हैं । इस पाप के फलस्वरूप उनका परभव भी बिगड़ जाता है । ऐसे पाखण्डीलोग, नाम से तो जैनी साधु कहलाते हैं, किन्तु उनके काम धर्म-घातक के से होते हैं। उनका साधुवेश, धोखा देने का साधन बन जाता है । वेश के द्वारा वे भोले व अनजान उपासकों को भुलावे में डालकर उनकी गांठ से जिनधर्म रूपी धन का हरण कर लेते हैं। आचार्य श्रीमद् हरिभद्रसूरिजी लिखते हैं कि ऐसे धर्मघातकों धर्मचोरों के वेश का महत्त्व ही क्या है और उनको नमस्कार करने का फल ही क्या है ? क्या डाकू और लुटेरे को नमस्कार करने से कभी पुण्य हुआ वास्तव में धर्म-घातक को नमस्कार करना, आदर सत्कार करना पाप है । उसकी धर्मघातकता का अनुमोदन है, उसे जिनधर्म का द्रोह करने का प्रोत्साहन देना है । जब साधु के साथ उपासक का संबंध, केवल धर्म के माध्यम से ही है, तो धर्म-घातक को उपासकगण, आदर सत्कार देते ही क्यों है ? यदि उनकी ओर से प्रोत्साहन नहीं मिलकर विरोध मिले या उपेक्षा ही हो, तो लिंगधारी की बुद्धि ठिकाने आ जाय या फिर वह वेश विडम्बना छोड़कर भाग जाय । किन्तु उपासकवर्ग की अनभिज्ञता ही उनका सहारा बनकर धर्म 65
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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