________________
बुरी प्रथा को सर्वथा नष्ट करना अत्यावश्यक है ।।
अधर्मी इइ बहुहा सावज्जं जिणपडिकुटुं च गरहियं लोए । जे सेवंति कुमग्गं करंति कारंति निद्धम्मा ||७४||
इस प्रकार लोक में बहुत से ऐसे सावध आचरणों एवं जिनेन्द्र द्वारा निषिद्ध तथा निन्द्य कार्य रूप कुमार्ग का जो साधु स्वयं सेवन करते हैं और दूसरों से सेवन करवाते हैं, वे अधर्मी हैं ।।७४।।
सावध आचरण करने वाले एवं जिनेश्वर की आज्ञा का भंग करने वाले कुमार्गी साधु तो अधर्मी ही हैं । उन अधर्मियों को वंदनादि करना अधर्म का समर्थन एवं धर्म का खंडन करना है । धर्म-घातक को नमस्कार कैसा?
इहपरलोयहयाणं सासणजसघाईणं कुदिट्ठीणं । कह जिणदंसणमेसिं को वेसो किं च नमणाइ ||७५||
इस लोक और परलोक का हनन करने वाले और जिनशासन की कीर्ति को नष्ट करने वाले उन कुदृष्टियों (मिथ्यादृष्टियों) में जैनदर्शन है ही कहाँ ? उनके साधु वेश का महत्त्व भी क्या है और उनको वंदना नमस्कार करने का फल ही क्या है ? ।।५।।
उन मिथ्यादृष्टि वेशधारी, जिनधर्म के विध्वंशकों का यह 1. इस अनिष्ट से बचने के लिए एक आचार प्रिय महान् आचार्य भगवंत ने कह दिया था कि मेरी निश्रा में कोई साध्वियों नहीं है। आजकल बहुत से साधु-साध्वी, साबुन और अन्य साधनों से कपड़ो को स्वच्छ, उज्ज्वल और सुंदर रखते हैं। शरीर और अंगों को भी धोकर चिकने व शोभित रखते हैं। उनकी यही प्रवृत्ति मर्यादा के विरुद्ध है। केशों की स्टाईल रखकर व्याख्यान की पाट पर बैठनेवाली साध्वियाँ तो आज भी विकार भाव का पोषण करती, करवाती है।
64