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________________ पूजा का उपदेश और उपदेश पर कर मयकिच्चे जिणपूयापरूवणं मयधणाणं जिणदाणे । गिहिपुरओ अंगाइपवयणकहणं धणट्ठाए ||६८|| वे असाधु लोग, अपने मत की स्थापना करने के लिए जिन-पूजा (प्रतिमा पूजन) की प्ररूपणा करते हैं और मृतक के धन को जिनेश्वर के दान (देवद्रव्य) में दिलवाते हैं। वे धन के लिए गृहस्थों के सामने अंग आदि का प्रवचन की प्ररूपणा करते हैं ।।६८।। वे अपने मत की स्थापना करने के लिए- "साधु मूर्तिपूजा करे"-ऐसी प्ररूपणा करते थे । साधु की मूर्ति पूजा के साथ मात्र आरम्भ ही नहीं आया, उसके बाद परिग्रह भी आ पहुँचा और उसके भिन्न-भिन्न मार्ग भी खुल गये । मृतक का धन भी जिनद्रव्य में आकर-इकट्ठा किया जाने लगा । जिस प्रकार हमारी सरकार को पैसे की जरूरत होती है, तो नये कर लगा ही देती है, उसी प्रकार उस समय के महात्माओं को भी पैसे की जरूरत तो पड़ती ही थी। उनको पैसा प्राप्त होने का साधन धर्म ही था । वे इसी के निमित्त से पैसा प्राप्त करते थे । उनका धर्मोपदेश, शास्त्रवांचन आदि भी आमदनी का एक स्रोत बन गया था । सव्वावज्जपवत्तण मुहुतदाणाइ सव्वलोयाणं । सालाइ गिहिधरे वा खज्जगपागाइकरणाइ ||६९|| वे सभी लोगों को सभी पापों में प्रवृत्ति कराने वाले मुहूर्त 1. आज भी यह हो रहा है। साधु के शव के करोडों रूपये आने लगे है। और उनको किस खाते में ले जाना उसके लिए वाद-विवाद हैं। 59
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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