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तो धर्म को लज्जाती है ।
स्वार्थ प्रेरित तप
अविहिकयाणुट्ठाणे पभावणं दंसणं पवाहकए । अपवयणुत्ततवंमि परूवणुजवणविहिकरणं ||६७|| वे अविधि से किये हुए अनुष्ठान की प्रभावना करवाते और दर्शन के प्रवाह को चलाते हैं । वे ऐसे तप की प्ररूपणा करते हैं कि जो जिन प्रवचन सम्मत नहीं है । वे ऐसे प्रवचन विरुद्ध तप की उज्जवणा विधि भी करवाते हैं ।। ६७ ।।
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आडम्बर खड़े करने में और अपनी आमदनी बढ़ाने में तप भी एक बड़ा साधन बन गया है । तप से उग्र व्रत धारण करने कराने से धर्म की प्रभावना होती है, किन्तु स्वार्थी लोगों ने इसका दुरुपयोग बहुत किया । इस बहाने से हजारों लोगों को एकत्रित करवाया जाता और उन लोगों से धर्म के नाम पर चढ़ावा लेकर द्रव्य संग्रह किया जाता था । आज भी तप के बहाने सावद्य प्रवृत्तियाँ बहुत होती है ।1 साधु स्वयं मायाचार का सेवन करके आडम्बर खड़े करवाते हैं ।
असैद्धान्तिक तप अर्थात् निर्जरा का लक्ष्य छोड़कर स्वार्थ सिद्धि के लिए किये जाने वाले तप का श्री हरिभद्रसूरिजी ने भी विरोध किया है । इस प्रकार के तप कर्मबंध बढ़ाने वाले होते हैं । 1. चोरी छीपे खाकर दुनियाँ को मासक्षमणादिका तप बताकर वाह-वाही लूट ली । चड़ावे बुलवा दिये, कहीं अणाहारी दवा के बल पर मासक्षमणादि तपश्चर्या कर वाह-वाही लूट ली गयी । इस प्रकार दिखावे का धर्म वास्तव में अधर्म के खाते में चला जाता है। इसका तप करने वाले को भी ख्याल नहीं है । तपश्चर्या के पारणे के चढ़ावे बुलवाकर धन इकट्ठा करवाकर आनंदित भी होते है । मेरे पारणे की इतनी बोली आयी देव-द्रव्यादि की वृद्धि हुई तो कहीं-कहीं सामायिक आयंबिलादि की बोली लगवाकर खुश होते हैं फिर वे सामायिक आयंबिल आदि पूर्ण हो या न हो, उनकी प्रशंसा तो हो ही जाती है। फिर आधाकर्मी आहार लेकर पारणा करते हैं। कहींकहीं उन रुपयों का उपयोग स्वेच्छानुसार करवाते है ।
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