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________________ विश्वास दिलाकर प्रसन्न रखने और सुखी करने का प्रलोभन भी देते और भक्त गण अप्रसन्न होने पर शाप देकर अनिष्ट कर डालने का भय भी दिखाते हैं । इससे भोले उपासक उपासिकाएं दबी रहती है और पाखंड चलता रहता है। उनका जीवन ही अधिकांश प्रपंचमय होता है । उनकी प्रवृत्तियाँ वे करते ही रहते हैं। व्यभिचारी थीकरफासं बंभे संदेहकलंतरेण धणदाणं । वट्टणं य सीसगहणं नीयकुलस्सावि दव्वें ||६६ || वे स्त्रियों के हाथ का स्पर्श करते हैं ।1 अब्रह्म का सेवन करते हैं, उसे धन देते हैं, उस स्त्री के कहने के अनुसार वर्तन करते हैं और धन देकर नीच कुल का शिष्य भी ग्रहण करते हैं ।। ६६ ।। I आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने अपने समय के साधुओं के दुराचार का वर्णन करते हुए जो दशा बतलायी वह अपने आप में स्पष्ट है । उनमें से भावरूपी चारित्र आत्मा तो मर ही चुकी थी। वे सदाचारी गृहस्थ से भी गये बीते, वेश - विडम्बक मात्र रह गये थे । स्वार्थी, पेटार्थी, दरिद्रता से दुःखी संसार में जिनकी वासना पूर्ति नहीं हो सकने के कारण जो साधु बनते हैं, जिन पर मोहकर्म का विशेष दबाव होता है, उन लोगों की अधिकता में धर्म का पतन ही होता है । वे स्त्रियों के कथनानुसार वर्तन भी करते हैं । अर्थात् उनके साथ रतिक्रीड़ा भी कर लेते है । शिष्य लोलुप साधु भी अयोग्य व्यक्तियों को ग्रहण करके धर्म की इस प्रकार की दुर्दशा करवाते हैं । जिनमें त्याग वैराग्य का रंग नहीं, ऐसे साधुओं की जमात 1. आज कई साधु स्त्रियों का हाथ हाथ में लेकर उनका भविष्य फल भी बताते हैं। 57
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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