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साधु करने लग गये थें । वर्तमान में मूर्ति पर नाम लिखवाने के लिए साधु द्वारा रूपये मंडवाने लिखवाने का काम चल रहा है । यह भी एक प्रकार से विक्रय ही है ।
वर्तमान में मूर्ति के अतिरिक्त फोटु का क्रय विक्रय भी होता है ।
संग्रहखोर
सन्निहिमाहाकम्मं जलफलकुसुमाइ सव्वसच्चित्तं । निच्चं दुतिवारभोयण विगइलवंगाइतंबोलं ||५७||
ये सन्निधि रखते-संग्रहखोरी करते हैं, आधाकर्मी वस्तु का आचरण करते हैं, पानी, फल और पुष्पादि सभी सचित्त वस्तुओं का सेवन करते हैं । सदैव दो और तीन बार भोजन करते हैं। विगयों का सेवन करते हैं और लवंग, इलायची आदि मुखवास का सेवन भी करते हैं ।। ५७ ।।
आचार्यश्री अपने समय की साधुओं की स्थिति का वर्णन करते हुए बतलाते हैं कि वे नामधारी साधु, स्वादिष्ट एवं मनोज्ञ खाद्य पदार्थों और वस्त्रादि का भविष्य में उपयोग करने के लिए संग्रह करते हैं । यह संग्रहखोरी आत्मदृष्टि से विमुख होकर विषय पोषण की अथवा देहपोषण की दृष्टि से होती है । कहाँ तो निर्ग्रन्थ महात्माओं का -
'अरसाहारे, विरसाहारे, लुक्खाहारे, तुच्छाहारे' और "बिलमिव पणगभूए"
का विधान और कहाँ यह चटोरापन, रसनेन्द्रिय का विषय पोषण और देह का पुष्टिकरण और साथ ही संग्रहखोरी । साधुता की रुचि ही कहाँ है ?
यह संग्रहखोरी वर्त्तमान में भी उभड़ आयी है । वस्त्रादि का
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