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________________ पेट भरे, लोभी, मूर्ति बेचने वाले सीसोदराइफोडण भट्टितं, लोहहेउगिहिथुणणं । जिणपडिमाकयविक्कय, उच्चाडणखुद्दकरणं च ॥५६|| ये साधु, शिष्य का उदर भरने के लिए भृत्यत्वसेवा करते हैं, लोभ के वश होकर गृहस्थों की स्तुति करते हैं, जिन - प्रतिमा का क्रय विक्रय करते हैं, उच्चाटन आदि मलिन विद्याओं का प्रयोग करते हैं ।। ५६ ।। आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी अपने समय के साधुओं का वर्णन करते हुए उनकी हीन दशा बतलाते हैं । उस समय भगवान् महावीर की निर्ग्रन्थ परंपरा के वंशज कहलाने वाले संसार त्यागी साधु, स्वार्थ से प्रेरित होकर गृहस्थों की सेवा भी करते थे । उनका कोई काम कर देते थे, जिससे गृहस्थ प्रसन्न होकर कृपालु बना रहे। वे गृहस्थों की प्रशंसा एवं स्तुति करके उनके हृदय में अपना स्थान बनाये रखने और उनसे अपना स्वार्थ साधने में प्रयत्नशील रहते थे ।1 यदि किसी पर अपनी धाक जमानी होती या परेशान करना होता, तो उच्चाटनादि विद्या के प्रयोग भी करते थे । जिनमें साधुता नहीं हो या जिनकी रुचि साधुता से हटकर स्वार्थ साधने में लगी हो, वे नाम के साधु, वेशोपजीवी साधु, किसी भी तरह से अपनी पेटभराई और मान प्रतिष्ठा बनाये रखने की ही धुन में रहते हैं। आज भी वेशोपजीवी साधुओं का लगभग यही हाल है । | प्रतिमा की खरीदी और बिक्री का काम भी उस समय जैन 1. इसी बात को लेकर विक्रम संवत तेरह सो दश में श्रीचंद्रसूरिजीने श्रावकों को खुश रखने के लिए साधु को श्रावकों को प्रतिक्रमण करवाने का विधान बनाया । 40
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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