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संग्रह किया जाता है और ताले में बंद अलमारे में रखे जाते हैं । कहीं किसी गृहस्थ के यहाँ सुरक्षित रहता है । भावुक भक्त, भक्ति पूर्वक देते हैं और गुरुदेव मनुहार से संग्रह बढ़ाते रहते हैं । वह संग्रह कभी दूसरी तरह के अनाचार पोषण में भी काम में आता है । यह संग्रह केवल वस्त्रों का ही नहीं, रुपयों और धन का भी होता है। कोई ओघा, पात्र और पुस्तकों के लिए लेता है, तो कोई दवा के लिए । कोई-कोई तो
अपनी पूंजी ब्याज में लगाते भी सुने हैं।
कुछ वर्ष पूर्व एक नामांकित साधु के हजारों रुपये एक आसामी में डूब जाने की बात प्रचारित हुई थी । पाली में तो रुपये और जेवर तथा कई प्रकार की भोगोपभोग सामग्री पकड़ी गई थी । मुंबई में लोकर में से रुपये, केसेटे आदि भी निकाली गयी थी । दौंडायचा काण्ड में हजारों का संग्रह प्रकाश में आया था और भी अप्रकाशित संग्रह कुछ साधुओं के पास होगा ही । यह सब साधु के वेश में असाधुता है। तृगाई है। धोखाबाजी है ।
श्रावक भी जिम्मेदार उपासकों की सुपात्रदान देने की रुचि एवं साधुओं के प्रति भक्ति होती है, होनी ही चाहिए । किन्तु
वह भक्ति विवेक की आँखों से युक्त होनी चाहिए ।
जिस वस्तु के देने से साधुता का पोषण हो, संयम पालन में सहायता हो, वही वस्तु उतनी ही मात्रा में भक्ति पूर्वक समर्पित करने से सुपात्रदान का लाभ होता है । जिस वस्तु की उन्हें आवश्यकता ही नहीं अथवा कम प्रमाण में आवश्यकता है, उसे अधिक देकर उनकी साधना में बाधक क्यों बना जाय ?
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