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________________ उज्ज्वल वस्त्र वत्थाई विविहवण्णाई, अइसियसद्दाई धूववासाइ । पहिरिज्जइ जत्थ गणे, तं गच्छं मूलगुणमुक्कं ||४६ || जिस गच्छ में विविध रंग के वस्त्र, अत्यंत श्वेत, शब्द ( कलप लगाने से कड़कड़ शब्द) करने वाले धूप से सुगंधित किये हुए वस्त्र पहिने जाते हैं, वह गच्छ, मूल गुण से रहित है ।। ४६ ।। रंगीन वस्त्रों का प्रचार तो अभी देखने में नहीं आता, परन्तु अत्यंत श्वेत- उज्ज्वल वस्त्रों का परिधान तो प्रायः सभी में हो चुका है बहुत थोड़े साधु-साध्वी इस चटक मटक के रोग से बचे हैं । वस्त्र धोते-धोते, सोड़े का उपयोग करने लगे, फिर साबुन का और अब कोई-कोई फैशन परस्त टिनोपाल का भी प्रयोग करने लगे हैं। जिनसे फैशन परस्ती भी नहीं छुटी, वे भी क्या संयमप्रिय हैं ? जिस गच्छ में ऐसे सुशोभित वस्त्र वाले साधु हों - आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी उस गच्छ को ही चारित्र के मूलगुण से शून्य कहते हैं । 1 यह चटकिलापन की भावना लोकैषणा से तथा चक्षु एवं स्पर्शनेन्द्रिय विषय की कामना से उत्पन्न होती है । इस प्रकार की भावना में संयमप्रियता कहां रहती है ? दशवैकालिक सूत्र अध्याय ६ गाथा ६६ में कहा है कि विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसार सायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ।। शरीर की विभूषा एवं शोभा करने से साधु, चिकने कर्मों 1. आचार्यादि व्याखाता मुनियों के लिए कारणिक उज्ज्वल वस्त्र की बात बढ़ते-बढ़ते अब तो चारों ओर उज्ज्वल ही उज्ज्वल वस्त्र दिखाई देते है। अब तो श्रावक संघ भी मलीन वस्त्रधारी साधुओं को देखकर टीका टीप्पणी करने लग गया है। कहीं-कहीं साधु भी टीका - टीप्पणी कर लेते है। 31
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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