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जिस गच्छ में विवेकशून्य साधु, क्रय विक्रयादि करते हैं, उस गच्छ को गुणरूपी समुद्र में विष के समान जानकर दूर से ही त्याग कर देना चाहिए ।।४६।।
इस गाथा में परिग्रह के पाप से सम्बन्धित क्रय-विक्रय का उल्लेख किया है । जिस गच्छ के साधु, पुस्तकादि का क्रयविक्रय (खरीदी और बिक्री) करते हैं, वह गच्छ जिनधर्म या धर्मसंघ रूपी गुण-समुद्र के लिए विष के समान है। उसे तो दूर से ही त्याग देना चाहिए ।
जिस प्रकार शरीर में विस्फोटक रखना सारे शरीर के लिए हानिकारक है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ संघ में परिग्रह प्रवृत्ति होना हानिकारक है, फिर भले ही वह पुस्तक के नाम पर हो या उपकरण व्यवस्था के लिए, अथवा संस्था के लिए ही हो, परिग्रह का लेन देन, क्रय विक्रय और हिसाब किताब रखना, देखना आदि प्रपंच, साधुता के विरुद्ध है । किसी संस्था या पत्र के लिए चन्दा करवाना भी उसके लिए निषिद्ध है । जो क्रय विक्रयादि करता है, वह अपने संयम रूपी अमृत में असंयम रूपी विष घोलता है । जिस संघ में ऐसा विषैला गच्छ हो, उसे शीघ्रातिशीघ्र पृथक् करके संघ रूपी गुणसागर को असंयम के विष से बचा लेना चाहिए, तभी तो संघ विशुद्ध रहता है । अन्यथा सारा संघ दूषित हो जाता है।
इस जमाने में विशुद्धि का विचार कुछ साधुओं में तो नष्ट प्रायः हो गया है।
केवल समूह पक्ष का विचार ही शेष एवं सर्वोपरि हो गया है। इसके लिए निन्दा, ईर्षा, द्वेष, झूठे वक्तव्य एवं स्पष्टीकरणादि निकालकर भ्रम फैलाया जाता है ।
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