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आचार्य श्री ने हार्दिक वेदना के साथ बड़े ही कठोर शब्दों में कहा कि जिस गच्छ में व्रत-भंजक वेशधारी हो, वह धर्मधन को लूटने वाले चोर-चोरों का समूह है। पाठकों को आचार्य श्री के ये शब्द बड़े कठोर लगेंगे, किन्तु वस्तु स्थिति पर विचार करते ये शब्द कटुता पूर्ण नहीं, किन्तु हार्दिक वेदना व्यक्त करते हैं और यथार्थ हैं।
किसी व्यक्ति का गाढ़ी कमाई का धन, कोई चोर लूट ले, तो वह लूटाया हुआ व्यक्ति, चोर को आशीर्वाद नहीं देगा । उसकी आत्मा में कितना दुःख होता है-यह समझना बिलकुल सरल है । उसी प्रकार निर्ग्रन्थ धर्म के रसिकों-प्रेमियों के सामने जब असाधुता के प्रसंग खुले रूप में उपस्थित हों, बढ़-चढ़कर आरम्भ समारंभमय प्रवृतियाँ होती हों, सावद्य कार्य किये कराये जाते हों, नये-नये आडम्बर खड़े किये जाते हों, भ्रष्टाचारियों और धर्मध्वंशकों से सम्बन्ध रखे जाते हों, इतना ही नहीं, जैनधर्म के लिए हानिकारक प्रचार किया जाता हो, तो ऐसी उल्टी प्रवृत्ति से उन्हें दुःख ही होगा । वे यही कहेंगे कि-साधु वेशधारी साहुकार, धर्म रूपी धन को लूट रहे हैं । अहिंसक वेशधारी, धर्म का प्राण हरण कर रहे हैं, धर्म की हत्या कर रहे हैं । ___ दशवैकालिक सूत्र अध्याय ६ गाथा ७ में भी यहाँ तक कहा है कि
दस अट्ठ य ठाणाई, जाइं बालोऽवरज्झइ । तत्थ अण्णयरे ठाणे, निग्गंथत्ताउ भस्सइ ।।७।।
अर्थात् - इन अठारह स्थानों में से किसी एक भी स्थान की विराधना-दोष सेवन करने वाला अज्ञानी साधु, निर्ग्रन्थत्वसाधुपने से भ्रष्ट हो जाता है । 26