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________________ हम या कोई भी सुज्ञ धर्मज्ञ, प्रत्यक्ष देख रहा है कि एक ही क्या, बहुत से दोषों का सेवन, कई साधुओं में दिखाई दे रहा है । 'शोभावर्जन' का आखरी नियम भी नहीं पालने वाले और साबुनादि से अति स्वच्छ एवं अति उज्ज्वल एवं सुशोभित रहते हुए तो आँखों से स्पष्ट दिखायी दे रहे हैं । वस्त्रों की उज्ज्वलता में श्रावक संघ को भी पीछे छोड़ दिया है । कम समझ वाला भी देख समझ सकता है । ऐसा करने वाले की दृष्टि संयम की ओर है या संसार की ओर ? यह समझना कठिन नहीं है । यदि उपासकगण, पक्षपात छोड़कर सूत्रकार के प्रति कर्त्तव्य परायण रहे और विराधकों के सहायक, समर्थक एवं वंदक नहीं रहे और उपेक्षा कर दें, तो उनका असहयोग, नियम भंजकों को सन्मार्ग पर ला सकता है । उपासकों को सोचना चाहिए कि वे किसके उपासक हैं ? जिनाज्ञापालक के या लोपक के ? यदि उन्हें जिनेश्वर भगवंतों, उनके बताये हुए विधिविधानों-आगमों एवं शुद्ध साधुत्व के प्रति वफादार (कर्त्तव्यशील) रहना है, तो आज्ञालोपकों का विरोध करना होगा। यदि विरोध नहीं कर सकें, तो उपेक्षा करके अपना सहयोग, समर्थन और पक्षपात छोड़ना होगा । उन्हें दो में से एक चुनना होगा-जिनाज्ञापालक का पक्ष या आज्ञा-विराधकों का पक्ष, दोनों का सम्बन्ध नहीं रह सकता । वह भी विराधना ही है । दोष सेवियों का गच्छ, उन्नति की ओर (मोक्ष की दिशा में) गच्छने-चलने वाला नहीं, किन्तु अवनति की ओर गच्छन्ति करने वाला होता है। 27
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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