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संघ विशेषण लज्जित होता है ।।
जो देवद्रव्यादि को हड़पने वाला हो, अपनी मर्यादा को तोड़ कर देवद्रव्य को स्वमालिकी का मानकर परिग्रही बन गया हो, दूसरों से अनाचार पूर्वक द्रव्य लेकर अपने उपभोग में लेता हो, उस भ्रष्टाचारी को सुसाधु नहीं कह सकते । एक सुश्रावक भी अनीतिपूर्वक किसी का धन नहीं लेता । वह दान किया हुआ या देव को अर्पण किया हुआ अथवां शुभ कार्यों में आये हुए द्रव्य पर नहीं ललचाता, तो साधु तो निष्परिग्रही एवं शुद्धाचारी होता है, उसे धन से क्या प्रयोजन है ? परिग्रह के त्रिकरण त्रियोग से त्यागी साधु, उपासकों द्वारा दिये हुए देव द्रव्यादि धन का भक्षण करे,
तो वह सदाचारी गृहस्थ से भी गया बीता है।
कहीं साधु, शास्त्रों के लिए धन संग्रह करवाने लगे, तो कहीं विद्यालयों, पुस्तकालयों एवं औषधालयों के लिए । धर्मस्थानों के निर्माण के लिए भी धन संग्रह होने लगा । साधु अपने खास रागी एवं विश्वस्त उपासक से कोई संस्था खुलवाता है या धर्मस्थान निर्माण करवाता है । वह बड़े बड़े नगरों में चातुर्मास करता है । उसके वे संस्था संबंधित खास उपासक वहाँ पहुँच जाते हैं और साधु के प्रभाव से हजारों रुपये बटोर लाते हैं । उन रुपयों में गृहस्थों द्वारा गड़बड़ें की गयी । साधु-बड़े-बड़े नाम और पदधारी साधु, हिसाब किताब देखने और जांचने लगे । कहीं-कहीं मर्जीदानों ने गड़बड़े की, तो चुपचाप दबा दी गयी । पैसे के बल पर अपनी मर्यादा-हीनता एवं दुराचार की रक्षा करने वाले कुछ स्वार्थी लोगों को पिट्ट बनाकर अपनी ओर से झगड़ने वाले खड़े किये गये । इस प्रकार द्रव्य का किसी धार्मिक
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