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________________ नीति से प्रतिकूल-ऐसे साधु-साध्वी अधिक हों और श्रावक श्राविका भी बहुत अधिक संख्या में हों, तो भी उसे संघ नहीं कहना चाहिए ।।१२१।। ___ अन्य विशेषणों की भांति संघ विशेषण भी दो प्रकार का है। एक तो महत्त्व बढ़ाने वाला और दूसरा महत्त्व घटाने वाला । जिस प्रकार तीर्थ, सुतीर्थ भी होता है और कुतीर्थ भी । उसी प्रकार संघ भी दो प्रकार का है । एक तो स्वपर हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी, सदाचार, शुद्धाचार एवं उत्तम आचार का वाहक, जीव को जिनत्व की ओर बढ़ाने वाला और परमात्मपद पर पहुँचाने वाला संघ होता है । ऐसे समूह को पाकर 'संघ' शब्द का महत्त्व बढ़ जाता है । ऐसा संघ जिनेश्वरों द्वारा भी प्रशंसित होता है । किन्तु दुर्गुणों, दुराचारों और स्वच्छंदों को पाकर संघ शब्द भी निन्दित हो जाता है। संघ विशेषण को अधिक बदनाम किया-रंगे-सियारों ने । साधु वेश में रहकर दुराचार का सेवन करने वाले गुप्त भ्रष्टाचारियों और प्रकट मिथ्यात्वियों ने निग्रंथ संघ-लोकोत्तर संघ को सर्वथा महत्त्वहीन एवं लज्जाजनक स्थिति में ला दिया । __आचार्यश्री कहते हैं कि ऐसे दुराचारियों के समूह को संघ नहीं कहना चाहिए । संघ तो गुणों का सागर एवं रत्नाकर होता है । जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा का आराधक समूह ही सुसंघ होता है, भले ही वह छोटा और थोड़े मनुष्यों का हो । सुगंध तो बूंद भर हो, तो भी मनुष्य को प्रसन्न कर देती है और दुर्गध थोड़ी हो या ढेरों-गाड़े भर । उस मैले से तो घृणा ही होती है । वह तो रोग ही फैलाता है । ऐसे विष्टा के समान दुर्गुणों के समूह से 116 -
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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