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________________ बहाने से संग्रह किया जाने लगा । उसमें से अनुचित तरीके से अपने इच्छित कार्यों में गुपचुप खर्च भी किया जाने लगा । इस प्रकार निष्परिग्रही परंपरा के बहुत से साधु, परिग्रह से संबंधित हो गये । दुराचारी साधुओं को अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए, अपने अनाचार को युक्ति संगत बताना पड़ता है । वे ऐसी कोई न कोई कुयुक्ति निकाल ही लेते हैं। भक्तों का भौतिक कार्य कर उन्हें भक्त बना देते हैं । बस, हो गया पक्ष खड़ा । उसके पक्षकार भी खड़े हो जाते हैं । ऐसे कुसाधुओं और उनके पक्षकारों को सुसाधु बिलकुल नहीं सुहाते । वे उनके प्रति अपने हृदय में ईर्षा की आग जलाये ही रहते हैं और निंदा करके विशेष पाप कमाते रहते हैं । · इस प्रकार कई तरह से दुराचार का सेवन करने वाले साधु और उनके पक्षकार श्रावकों के बड़े भारी समूह को भी संघ नहीं कहना चाहिए । किन्तु शुद्धाचारी साधु साध्वियों और उनके उपासक उपासिकाओं की संख्या बिलकुल थोड़ी हो, तो भी वह संघ है - सुसंघ है, जिनाज्ञानुसारी लोकोत्तर संघ है । कहा जाता है कि पांचवें आरे के अंतिम चरण में एक साधु, एक साध्वी, एक श्रावक और एक श्राविका रहेंगे। इनको ही संघ कहा जायगा, शेष सब संघ बाह्य रहेंगे । साँप के समान विषैला संघ अम्मापियसरिच्छो सिवघरथंभो य होइ जिणसंघो । जिणवर आणावज्झो सप्पुव्व भयंकरो संघो || १२२|| जिनेश्वर भगवंत का संघ तो माता-पिता के समान और 118
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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