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________________ दुराचारियों का कु- संघ दुस्सीलदव्वलिंगीजणाण तप्पक्खकारओ लोओ । उम्मग्ग अविहिरायी विहिपकखे मच्छरधरो य ||११७ | सो संघो न पमाणं उम्मग्गपरूवयं च बहुलोयं । दण भणति संघं संघसरूवं अयाणंता ||११८|| दुःशील- दुराचारी वेशधारी साधुओं का पक्ष करने वाला, उन्मार्ग और अविधि का रागी और विधि-पक्ष वालों से द्वेष करने वाला जो लोक-समूह है, वह संघ नहीं है । ऐसा संघ प्रमाण (मानने योग्य) नहीं है। संघ के स्वरूप से अनजान पुरुष ही, उन्मार्ग की प्ररूपणा करने वाले बहुत लोगों का समूह देखकर उसे 'संघ' कह देते हैं ।। ११७, ११८ । । किसी उद्देश्य को लक्ष्य कर बने हुए मनुष्यों के वर्ग या संगठन को 'संघ' कहते हैं । ये संघ कई प्रकार के होते हैं । व्यापारियों का संघ, व्यवसाइयों, उद्योग संचालकों, मजदूरों, कर्मचारियों, कृषकों, नागरिकों आदि अनेक प्रकार के संघ होते हैं । कसाइयों का संघ भी बना और वेश्याओं का भी । इस प्रकार अच्छे या बुरे कामों के भी संघ होते हैं । जो प्रवृत्ति हमारी दृष्टि से बुरी है, जिस संगठन को हम उत्तम ध्येय संपन्न नहीं मानते, वह भी यदि अपने उद्देश्य के अनुकूल प्रवृत्ति करता है, तो उस गठन को तदनुकूल ठीक कहा जाता है । किन्तु जो संगठन या संघ, उद्देश्य के विपरीत आचरण करता है, तो उस संघ को 'कुसंघ' कहा जाता है । जैनधर्म लोकोत्तर संघ है । इस संघ का आधार निग्रंथ प्रवचन है । जिनेश्वर भगवंतों के उपदेश के अनुसार श्रद्धा, 112
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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