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________________ 'पिशाच' का विशेषण दें, उन्हें हम जानते समझते हुए भी सन्मान दें, यह तो निरी सत्वहीनता ही है । वे दुराचार को प्रोत्साहन देने वाले हैं। कुगुरु वंदनादि का प्रायश्चित्त तेसिं गुरुबुद्धीए पच्चक्खाणाइ धम्मणुट्ठाणं । धम्मुत्ति नाऊणं विहलं पच्छित्तजुग्गं च ||११५।। उन कुशीलिए साधुओं को गुरु मानकर उनके पास जो प्रत्याख्यानादि धर्मानुष्ठान करते हैं, वह निष्फल होता है और वह प्रायश्चित्त के योग्य है ।।११५।। ___ असाधु अथवा कुसाधु को साधु मानना मिथ्यात्व है । मिथ्यात्वी को गुरु मानकर-आदर देना, मिथ्यात्व को प्रोत्साहन देना है । मिथ्यात्व युक्त क्रिया बंधन कारक होती है और प्रायश्चित्त से इसकी शुद्धि होती है । छल्लहुयं गुरुकज्जे ममत्तबुद्धीए होइ मिच्छत्तं । लहुकिच्चे पणमासो सट्ठाणं धम्मसठ्ठाणं ||११६।। वैसे कुशीलिए गुरु के प्रति ममत्व-बुद्धि होने पर मिथ्यात्व लगता है और उसका प्रायश्चित्त 'षट् लघु' और लघु कार्य में पांच मास है। यहाँ स्वस्थान है, वह धर्म स्वस्थान है ।।११६।। साधु के दुराचार को जानते हुए भी पक्षपात से या अपनेपन की बुद्धि से उसे शुद्धाचारी सद्गुरु के समान आदर दे, तो वह मिथ्यात्व है और उसका प्रायश्चित्त 'षट् लघु' है । षट् लघु प्रायश्चित्त भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद से युक्त है । इसका स्वरूप तत्संबंधी साहित्य से या बहुश्रुत से समझना चाहिए । - 111
SR No.022221
Book TitleVandaniya Avandaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages172
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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