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________________ ( ४०७ ) क्षान्त्यादियुतैमॆत्र्यादि संगतैबृंहणीय इति ॥ ८-१४ ॥ मूलार्थ-प्रतिष्ठासमयगत आ आत्मिकभाव एक सामान्य मात्र होय छे, तो पण ते भावने उचित-समुचित भाववृद्धिना उपायोथी तथा क्षमा आदि गुण संपादन करीने तेमज मैत्री, करुणा आदि भावनाओथी उत्तरोत्तर जरुर वधारवो. " स्पष्टीकरण" _____ अनादिथी अप्राप्त अने दुर्लभतर परमात्म विषयक भावना अगर ध्यान, प्रतिष्ठाना प्रभावथी कर्ता-कारयिता तथा अन्य जनोने प्राप्त थाय छे. आ भाव परमात्मा साथे एकत्वपणुं. आत्माना सद्विचारो विगेरे प्रतिष्ठा समये तो अत्यंत अल्प होय छे, एटले अन्य अन्य पौद्गलिक संबंधी विचारो-भावोनी अपेक्षाए बहु थोडो होय छे, परंतु स्वात्माने परमात्मपणुं प्राप्त करवा पूर्वोक्त भावनुं यथोचित रूपे प्रथम तो रक्षण करवु आवश्यक छ, अने पछी ते भावने वधारवा सारं आसपासना ते भावनुं खंडन करनारा साधनोकारणो दूर करी दिवसानुदिवस ते भाव प्रफुल्लित थाय तेवा उचित-प्रशस्त संयोगो-कारणो एकत्र करी ते भावने वधारवा दत्तचित्त थवं. अर्थात्-नित्य परमात्म स्वरूपy ध्यान, पूजा, स्मरण अने परमात्म संबंधी आज्ञानुं पालन
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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