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छे. अतएव अहीं ग्रंथकर्ताए भावने रसेंद्रनी उपमा आपी, तेमज पुण्यानुबंधी पुण्यनो प्रवाह पण भविष्यमां केवल उच्चउच्चतर संपत्तिओ अर्पे छे अने आत्माने सद्गति सिवाय अन्य स्थानमां स्थापतो नथी.
केवल पारो पण ताम्र आदि धातुने सुवर्ण बनावी शकतो नथी परंतु अग्निनी त्यां खास जरूर पडे छे, एटले अहीं जीवात्मारूप ताम्र धातु शोधनार अग्नि कोण ? ए प्रश्ननुं समाधान आचार्यश्री जणावे छे.
वचनानलक्रियातः, कर्मेन्धनदाहतो यतश्चैषा ॥
इतिकर्त्तव्यतयाऽतः,
सफलैषाप्यत्र भावविधौ ॥ ८-९ ॥
मूलार्थ —– शास्त्रवचन - आज्ञारूप अग्नि तेनी क्रिया एटले प्रज्वलनपणुं अने तेनाथी कर्मरूप इंधन - काष्ठो तेनो जे दाह भस्मीभाव थवो अर्थात् अग्निमां लाकंडा नांखवानी क्रिया करवी - आ प्रमाणे करवाथी आ बिम्बप्रतिष्ठा सफल थाय छे, कारण के आ विधान भावपुष्टिमां हेतुभूत थाय छे. " स्पष्टीकरण "
वचन एटले आगमज्ञान तेने अहीं अग्नि को छे, जेम अग्नि सर्व पदार्थोनो क्षणवारमां नाश करी नांखे