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( ३५२) अमोरथोनी पुष्टि शुं कामनी ? एवी वास्तविक शंका उपस्थित थाय खरी, कारण के प्रतिमानी अंदर बाल, यूषा, मध्यम ए अवस्थात्रयजन्य भावो काइ उपजाववा नथी; तेमज ते मावो वीतराग स्वरूप मूर्तिमा प्राविर्भूत करवा ए तो वीतरामभावनो ध्वंस करवा जेवू गणाय. मा शंका जो के सत्य के अने ग्रंथकर्तानो ए भाशय पण नथी के शिल्पी-हृदयगत अवस्थोचित भावो प्रतिमामा पोषवा, किन्तु शिल्पकारने प्रसन्न करी ते द्वारा प्रतिमामा हर्षितवदन, लावण्यता, ध्यानावस्था, मनोहरता, आकर्षणता, पूर्णयौवनत्व, सौकुमार्य आदि भावो प्रकटे-उपसे भने ते परथी दृष्टाओ छमस्थ, केवलित्थ भने सिद्धत्व ए अवस्था. जयनी भावना जरुर प्राप्त करी शके. श्रा हेतुथी कारीगरोने अवस्थोचित पदार्थों अर्पण करी संतोषवानुं शास्त्रकर्ताए कडं. अधिक गुण-लाभ माटे भाम करवामां कांइ दोष कहेवाय नहीं. ___“अंतःकरणनी पवित्रतावडे कारीगर पासे प्रतिमा करावची" ए बात कही गया तेनी पुष्टि माटे ग्रंथकार फरीने नहीं विशेष उपदेश मापे छे. यद्यस्य सत्कमनुचितामह,
वित्ते तस्य तज्जमिह पुण्यम् ॥