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________________ ( ३५१) ए त्रण भवस्थोचित संस्कारवान् होय, एटले आ मनुष्य पोतानी अवस्थोचित पदार्थ प्राप्तिथी आनंद माने के अगर अवस्थोचित पदार्थ ग्रहण करवा उत्सुक बने छे, तेमज तेना चित्तमां-हृदयमा वारंवार अवस्थोचित ख्यालो रम्या करे छे. आने ज शास्त्रकर्ता शिन्पी-हृदयगत मनोरथ कहे के. अतएव प्रतिमा इप्सु जने मा कारीगरोने खुश राखवा प्रतिमा बनावती वखते वालने रमकडा, युवकने खानपान भने मध्यमने वस्त्र, माल्य आदि जरुर देयं' अर्पण करवा. मा पदार्थों अर्पवानुं कारण एक तो शिल्पीना चित्तनी प्रसन्नता प्रकटाववा अने बीजुं प्रतिमामां अवस्थात्रयना भाव आविर्भूत करवा-उपसाववा. परमार्थ ए केप्रतिमा करती वखते कारीगरनो जेवो ख्याल होय अने पासे जेवा योग्य साधनो पड्या होय तेवो भाव प्रतिमाना प्राकारमा यथाकथंचित् उद्भवी शके-उतरी शके के परंतु आ पदार्थो कारीगरने अर्पा तेना विकारो पुष्ट करवा एवो शास्त्रकर्तानो आशय नथी, किन्तु शिल्पकारनी त्रण अवस्था, अवस्थोचित मनोरथो निहाळी ते परथी उद्भवेल मूर्तिमा आकारविशेषद्वारा अवस्थात्रयनी भावना प्रतिमामा भारोपवी अने भा भावना दृष्टाना हृदयमा प्राविभंत बने एतदर्थे शिल्पकाने ते ते पदार्थों अर्पवा, ए ज ग्रंथकर्तानो मुख्य आशय छे. आ परथी सिद्धस्वरूप वीतरागदेवनी मूर्ति बनाववामां शिल्पी-हृदयगत
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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