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________________ (२७६) प्रयत्न जरुर करे. पाथी अहीं जणाव्युं के–'परिणते शास्त्र. वचन यथारूपतया परिणम्या पछी एटले 'नासुलभमिदं सर्व ' या सर्व अनुष्ठानो प्राप्त करवा तथा दशे संज्ञामोनो रोध करवो कांइ दुर्लभ नथी, किन्तु सुलभतर छे. निदान ए के-शास्त्रवचननो निर्दोष राग प्रगटवाथी भवी प्रात्माना बे प्रकारना मलो स्वतः नाश पामे छे. एक तो जे 'क्रियामल' ना जोरथी आत्मा सुंदर वर्तन आदरवाने असमर्थ अनादि. कालथी रहेतो हतो ते मलनो नाश थाय अने दुष्ट प्राशयरूपी मलिनताथी आत्मा शुद्ध वस्तुने बराबर विचारी शकतो न्होतो एवो ' भावमल ' अर्थात् आशयनी अपवित्रता तेनो पण नाश थाय छे, आम थवाथी जरुर दश संज्ञानो निरोध अगर निरोध करवानो उत्साह आत्माने जागृत थाय छे, एमां अधिकोक्ति जेवू कशुंए नथी. एवं जेओने सर्वज्ञवचन पर प्रेम जागृत थयो नथी तेोने ज ा अनुष्ठान प्राप्त थर्बु दुर्लभतर होय. कहुं छे के-" न यस्य भक्तिरेतस्मिंस्तस्य धर्मक्रियाऽपि हि । अन्धप्रेक्ष्यक्रिया तुल्या कर्मदोषादसत्फला" ॥ १॥ “जेने सर्वज्ञशास्त्र उपर प्रेम के भक्तिभाव नथी तेनी धर्मक्रिया पण निश्चयथी अंधनी दृष्टि संबंधी क्रियानी माफक कर्मदोषना लीधे असत् फलवाळी समजवी." अर्थात् अंधने दृष्टि होय तो पण तेनुं फल कांइ पण न होवाथी जेम फलने नहीं देनारी होवाथी नकामी छे तेम श्रद्धा विनानी धर्मक्रिया पण फल वगरनी समजवी
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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