SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दर्शावनार प्रभु वीतरागदेवना वचनो अखंड निराबाधपणे जेओना हृदयमां निवास करी रह्या होय तेश्रोना रोगो अने तामसो क्यांथी स्थिर रही शके १ अर्थात् न ज रहे. कयु पण छे के-"पापामयमौषधं शास्त्रं, शास्त्रं पुण्यनिबंधनम् । चतुः सर्वत्रगं शास्त्रं, शास्त्रं सर्वार्थसाधनम् "॥१॥ 'पापरूपी रोगोने निर्मूल-नाश करनार अमूल्य औषध तुल्य शास्त्र छे, अने शास्त्र पुन्यबंध करवामां एक मुख्य साधन छे, एवं शास्त्र सर्व पदार्थोंने देखवा माटे अलौकिक अद्वितीय नेत्र समान छे, तथा सर्व अर्थनी सिद्धि करनारं पण शास्त्र ज छे.' तेमज चरमकालवर्ती भवि आत्माओ प्रत्येक क्रियामां शास्त्रनो ज आधार स्वीकारे छे अर्थात् सर्वज्ञवचनथी. उलटी रीते चालवाने तेश्रो चंचलचित्त थता नथी. एज वात अन्यत्र पण कही छे-"परलोकविधौ शास्त्रात्, प्रायो नान्यदपेक्षते । आसन्नभव्यो मतिमान्, श्रद्धाधनसमन्वितः " ॥१॥ " परलोक संबंधी साधनभूत क्रियामां श्रद्धारूपी धनवालो अने बुद्धिशाली एवो निकटभवी आत्मा सर्वज्ञशास्त्र सिवाय अन्य प्रालंबन बहोलताये कदापि स्वीकारतो नथी, अपेक्षा राखतो नथी." उपर कह्या प्रमाणे शास्त्रवचनो जेना हृदयमां रमी रह्या होय तेमज ते पर ज जेोनी अखंड श्रद्धा होय तेत्रो अवश्य शास्त्रमा जे वात स्वीकार्यरूपे अने हेयरूपे कही होय ते ते वातोने मतिमान् प्रात्माओ यथाशक्तिए स्वीकारवानो अने त्याग करवानो
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy