________________
(२१५)
धर्मप्रशंसनादे
र्बीजाधानादिभावेन ॥४-७॥ मूलार्थ-पोते आचरित धर्मनी लोको प्रशंसा करे, तेमज अन्य लोको तेनुं अनुकरण करे जेथी अनुक्रमे पुण्यानुबंधीपुण्यरूप फल धर्मीजनने प्राप्त थाय, अर्थात् आ रीते अतिशे पोते करेल धर्मसिद्धिन फल जेनाथी प्राप्त थाय के एवं शुद्ध-निर्मल अने योग्य 'जनप्रिय' नामे पांचमुं धर्मतत्त्वनुं लिंग जाणवू. " स्पष्टीकरण"
ग्रंथकर्ता शरुपातमां ज 'जनप्रिय' नामे धर्मतत्त्चनुं लिंग बराबर उचित ज के एम ‘युक्तं' पदथी ध्वनित करे छे, पण अनुचित नथी एवं भार मूकीने जणावे छे; कारण के खरो 'जनप्रिय' तेज होइ शके के दंभ विना धर्माचरण करतो होय तथा लोक निदे तेवू आचरण न करतो होय. 'जनप्रिय' थवाना कारणो आ प्रमाणे कह्या छे. प्रथम 'जनप्रियपणुं' दांभिक जूठ-कपटभावथी उपजावेलुं न होवू जोइए, केमके घणा लोको जनतामां पोतानुं सारूं देखाडवा माटे अने सर्वने प्रिय थवा सारु अनेकधा खोटी मीठाशो तथा असत्य कपटभावो आदिने सेवे छे. श्रा हेतुथी ज श्लोकमां 'शुद्धं ' ए विशेषण आप्युं छे. एटले जे 'जनप्रिय 'पणुं राग-द्वेष विनानुं अने दंभ रहित निर्मल होय ते ज अहीं आपे