________________
( २१४ )
6
एटलं छे के - श्रा ' निर्मलबोध ' गुणनी जागृति थया पछी पापजुगुप्सा' नामे त्रीजा गुणनुं स्वरूप बराबर ख्यालमां श्रावी शके छे अने तेने प्रवृत्तिमां योग्य रीते मूकी शकाय. नितान्त ए गुण माया रहितपणे शुद्ध ताश्विक भावनाने पामी शके छे. अतएव ग्रन्थकर्ताए ' पापजुगुप्सा' नी अनंतर उपरोक्त ' निर्मलबोध ' नामे चतुर्थ गुण बताव्यो.
प्रथम दर्शावेल औदार्य, दाक्षिण्य, पापजुगुप्सा अने निर्मलबोध ए गुणना अभावथी ज लोकनिन्दा, अपयश, मानहानि, अपकीर्ति श्रादि दुर्गुणो श्रात्माने लागु थाय छे अने ते गुणो व्यापछी या दुर्गुणो सत्वर नाश पामे छे. परमार्थ ए के - उपरोक्त चतुर्गुणी आत्मा अवश्य देयवाक्य तथा जनप्रिय बने, माटे अहीं ग्रंथकर्ता उपरना चार गुणोनुं कथन कर्या पछी तेना ज फलरूप ' जनप्रिय ' नामे पांच धर्मतनुं लिंग सातमा श्लोकमां दर्शावे छे.
अथवा प्रथम कथित चतुगुणी आत्मा बन्या पीपण यदि तेनी केटलीक प्रवृत्ति लोकोने रुचे तेवी न होय, अगर औचित्यता, विनय, नम्रता के समयज्ञपशु न होय तो प्रथमना चारे गुणो धर्मतत्त्वनुं बराबर कार्य साधवामां निष्फल बने. श्रा हेतुथी पांचमुं ' जनप्रिय ' नामे लिंग दर्शावे छे.
युक्तं जनप्रियत्वं
शुद्धं तद्धर्मसिद्धिफलदमलम् ।