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________________ (११०) मूलार्थ-गुरु पर प्रांतरनी भक्तिपूर्वक तेमना आशयने अनुलक्षी ते प्रमाणे वर्तन करवू-तेयोनी आज्ञाने आधीन ज रहेg ए ज परमेश्वर प्राप्तिनुं मुख्य बीज छे अने तेनाथी ज मुख्यतया मोक्षप्राप्ति आत्माने कही छे. "गुर्वाधीनता" स्पष्टीकरण-अहीं प्रवचनज्ञान प्राप्त करवा मुनिये प्रथम तो गुर्वाधीन रहेवू जोइये, ए तत्त्व प्राचार्यश्री दर्शावे छे. अर्थात्-जेने आगमज्ञान, तेनुं मौलिक तत्त्व प्राप्त करवं होय तेणे अवलमांतो तेवा ज्ञानवान् गुर्वादिकोनी सर्वस्वनो भोग. पापीने पण सेवा करवी जोइए. टीकाकार कहे के के-आ गुरुदेव सिवाय मारो संसारभय कोइ दूर करनार नथी-एज तरणतारण एक जहाजरूप छे, ए भावना हृदयमां अंकित करी-रोमेरोममां प्रतिबिंबित करी तेमनी सेवा करवी एतावन्मात्र नही किन्तु गुरु चित्त परीक्षी (जाणी) तेमना आशयनुं अनुसरण करवू, चेष्टा के क्रिया विशेषथी तेमना हृदयनो भाव जाणी लेवो अने ते प्रमाणे वर्तन करवू, तेओना पर सरल आशयथी अद्भूत भक्ति धारण करवी, बहुमान, विनय, सेवा, आसन अर्पण करवू, उमा थबु, सामे जवं, पादप्रक्षालन, वैयावच्च विगेरे भक्ति मनसा, वाचा अने कायाथी करवी. टुंकमां गुरु प्राज्ञाथी ज सर्व वर्तन करवं, किन्तु मोक्षार्थीए स्वतंत्र के स्वेच्छारी वर्तन न करवु जोइये. "प्राणाए चिय चरणं तम्भंगे जाण किं न भग्गंति । आणंव अइकतो का
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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