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________________ श्रावक धर्म विधि प्रकरण अचरमावर्तकालीन अवस्था को 'ओघ - दृष्टि' और चरमावर्तकालीन अवस्था योग - दृष्टि कहा गया है। आचार्य हरिभद्र ने इन आठ योग- दृष्टियों के प्रसंग में ही जैन - परम्परा सम्मत चौदह गुणस्थानों की भी योजना कर ली है। इसके पश्चात् उन्होंने इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग की चर्चा की है । ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने योग अधिकारी के रूप में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और सिद्धयोगी - इन चार प्रकार के योगियों का वर्णन किया है। आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रन्थ पर १०० पद्य प्रमाण वृत्ति भी लिखी है, जो १९७५ श्लोक परिमाण है। योगबिन्दु : हरिभद्रसूरि की यह कृति अनुष्टुप् छन्द के ५२७ संस्कृत पद्यों में निबद्ध है। इस कृति में उन्होंने जैन योग के विस्तृत विवेचन के साथसाथ अन्य परम्परासम्मत योगों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विवेचन भी किया है। इसमें योग अधिकारियों की चर्चा करते हुए उनके दो प्रकार निरूपित किये गए हैं – (१) चरमावृतवृत्ति, (२) अचरमावृत - आवृतवृत्ति । इसमें चरमावृतवृत्ति को ही मोक्ष का अधिकारी माना गया है। योग के अधिकारी अनधिकारी का निर्देश करते समय मोह में आबद्ध संसारी जीवों को 'भवाभिनन्दी' कहा है और चारित्री जीवों को योग का अधिकारी माना है। योग का प्रभाव, योग की भूमिका के रूप में पूर्वसेवा, पाँच प्रकार के अनुष्ठान, सम्यक्त्व प्राप्ति का विवेचन, विरति, मोक्ष, आत्मा का स्वरूप, कार्य की सिद्धि में समभाव, कालादि के पाँच कारणों का बलाबल, महेश्वरवादी एवं पुरुषाद्वैतवादी के मतों का निरसन आदि के साथ ही हरिभद्र ने 'गुरु' की विस्तार से व्याख्या की है। आध्यात्मिक विकास की पाँच भूमिकाओं में से प्रथम चार का पतञ्जली के अनुसार सम्प्रज्ञात-असम्प्रज्ञात के रूप में निर्देश, सर्वदेव नमस्कार की उदारवृत्ति के विषय में चारिसंजीवनी, न्याय गोपेन्द्र और कालातीत के मन्तव्य और कालातीत की अनुपलब्ध कृति में से सात अवतरण आदि भी इस ग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य हैं। पुन: इसमें जीव के भेदों के अन्तर्गत अपुनर्बन्धक सम्यक् दृष्टि या भिन्न ग्रंथी, दैशविरति और सर्व-विरति की चर्चा की गई है। योगाधिकार प्राप्ति के सन्दर्भ में पूर्वसेवा के रूप में विविध आचार-विचारों का निरूपण किया गया है। आध्यात्मिक विकास की चर्चा करते हुए अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्ति-संक्षय - इन पाँच भेदों का निर्देश किया गया है। साथ ही इनकी पातञ्जलि अनुमोदित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि से तुलना भी ५२
SR No.022216
Book TitleShravak Dharm Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorVinaysagar Mahopadhyay, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages134
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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