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________________ (श्रावक धर्म विधि प्रकरण) वृत्ति अनुपलब्ध है। जीवाभिगमसूत्र पर आचार्य मलयगिरि कृत एकमात्र वृत्ति उपलब्ध है जिसमें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकारों का नामोल्लेख भी किया गया है। उसमें हरिभद्रकृत तत्त्वार्थ-टीका का उल्लेख है, परन्तु जीवाभिगम पर उनकी किसी वृत्ति का उल्लेख नहीं है। ६. चैत्यवन्दनसूत्र वृत्ति (ललितविस्तरा)-चैत्यवन्दन के सूत्रों पर हरिभद्र ने ललितविस्तरा नाम से एक विस्तृत व्याख्या की रचना की है। यह कृति बौद्ध-परम्परा के ललितविस्तरा की शैली में प्राकृत मिश्रित संस्कृत में रची गयी है। यह ग्रन्थ चैत्यवन्दन के अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले प्रणिपातदण्डकसूत्र (नमोत्थुणं), चैत्यस्तव (अरिहंत चेइयाणं), चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स..), श्रुतस्तव (पुक्खरवर..), सिद्धस्तव (सिद्धाणं-बुद्धाणं), प्रणिधानसूत्र (जय-वीयराय) आदि के विवेचन के रूप में लिखा गया है। मुख्यत: तो यह ग्रन्थ अरिहन्त परमात्मा की स्तुतिरूप ही है, परन्तु आचार्य हरिभद्र ने इसमें अरिहन्त परमात्मा के विशिष्ट गुणों का परिचय देते हुए अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य में तर्कपूर्ण समीक्षा भी की है। इसी प्रसंग में इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम यापनीय मान्यता के आधार पर स्त्रीमुक्ति का समर्थन किया गया है। ७. प्रज्ञापना-प्रदेश व्याख्या- इस टीका के प्रारम्भ में जैन-प्रवचन की महिमा के बाद मंगल की महिमा का विशेष विवेचन करते हुए आवश्यक टीका का नामोल्लेख किया गया है। भव्य और अभव्य का विवेचन करने के बाद प्रथम पद की व्याख्या में प्रज्ञापना के विषय, कर्तृत्व आदि का वर्णन किया गया है। जीव-प्रज्ञापना और अजीव-प्रज्ञापना का वर्णन करते हुए एकेन्द्रियादि जीवों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। द्वितीय पद की व्याख्या में पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रियादि के स्थानों का वर्णन किया गया है। तृतीय पद की व्याख्या में कायाद्यल्प-बहुत्व, वेद, लेश्या, इन्द्रिय आदि दृष्टियों से जीव-विचार, लोक-सम्बन्धी अल्पबहुत्व, आयुर्बन्ध का अल्प-बहुत्व, पुद्गलाल्प-बहुत्व, द्रव्याल्प-बहुत्व, अवगाढाल्प-बहुत्व आदि पर विचार किया गया है। चतुर्थ पद में नारकों की स्थिति तथा पञ्चम पद की व्याख्या में नारकपर्याय, अवगाह, षट्स्थानक, कर्मस्थिति और जीवपर्याय का विश्लेषण किया गया है। षष्ठ और सप्तम पद में नारक सम्बन्धी विरहकाल का वर्णन है। अष्टम पद में संज्ञा का स्वरूप बताया है। नवम पद में विविध योनियों एवं दशम पद में रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों का चरम और अचरम की दृष्टि से विवेचन किया गया है। ग्यारहवें पद में भाषा के
SR No.022216
Book TitleShravak Dharm Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorVinaysagar Mahopadhyay, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages134
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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