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(श्रावक धर्म विधि प्रकरण)
गाथा में जिन वार-तिथि इत्यादि का उल्लेख है, वह वि० सं० ५८५ के अनुसार बिल्कुल ठीक है, ज्योतिषशास्त्र के गणितानुसार प्रामाणिक है।
- इस प्रकार श्री हरिभद्रसूरि जी महाराज ने स्वयं ही अपने समय की अत्यन्त प्रामाणिक सूचना दे रखी है, तब उससे बढकर और क्या प्रमाण हो सकता है जो उनके इस समय की सिद्धि में बाधा डाल सके? शंका हो सकती है कि 'यह गाथा किसी अन्य ने प्रक्षिप्त की होगी' किन्तु वह ठीक नहीं, क्योंकि प्रक्षेप करने वाला केवल संवत् का उल्लेख कर सकता है किन्तु उसके साथ प्रामाणिक वार-तिथि आदि का उल्लेख नहीं कर सकता। हाँ , यदि धर्मकीर्ति आदि का समय इस समय में बाधा उत्पन्न कर रहा हो तो धर्मकीर्ति आदि के समयोल्लेख के आधार पर श्री हरिभद्रसूरि को विक्रम की छठी शताब्दी से खींचकर आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ले जाने की अपेक्षा उचित यह है कि श्री हरिभद्रसूरि के इस अत्यन्त प्रामाणिक समय-उल्लेख के बल से धर्मकीर्ति आदि को ही छठी शताब्दी के पूर्वार्ध या उत्तरार्ध में ले जाया जाय।
किन्तु मुनि श्रीजयसुन्दरविजयजी की उपर्युक्त सूचना के अनुसार यह जम्बूद्वीप- क्षेत्रसमासवृत्ति का रचनाकाल है। पुन: इसमें मात्र ८५ का उल्लेख है ५८५ का नहीं। इत्सिंग आदि का समय तो सुनिश्चित है। पुन: समस्या न केवल धर्मकीर्ति आदि के समय की है, अपितु जैन-परम्परा के सुनिश्चित समयवाले जिनभद्र, सिद्धसेन क्षमाश्रमण एवं जिनदासगणि महत्तर की भी है - इनमें से कोई भी विक्रम संवत् ५८५ से पूर्ववर्ती नहीं है जबकि इनके नामोल्लेख सहित ग्रन्थावतरण हरिभद्र के ग्रन्थों में मिलते हैं। इनमें सबसे पूर्ववर्ती जिनभद्र का सत्ता-समय भी शक संवत् ५३० अर्थात् विक्रम संवत् ६६५ के लगभग है। अत: हरिभद्र के स्वर्गवास का समय विक्रम संवत् ५८५ किसी भी स्थिति में प्रामाणिक सिद्ध नहीं होता।
हरिभद्र को जिनभद्रगणि, सिद्धसेनगणि और जिनदासमहत्तर का समकालिक मानने पर पूर्वोक्त गाथा के वि० सं० ५८५ को शक संवत् मानना होगा और इस आधार पर हरिभद्र का समय ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध सिद्ध होता है। हरिभद्र की कृति दशवैकालिकवृत्ति में विशेषावश्यकभाष्य की
अनेक गाथाओं का उल्लेख यही स्पष्ट करता है कि हरिभद्र का सत्ता-समय विशेषावश्यकभाष्य के पश्चात् ही होगा। भाष्य का रचनाकाल शक संवत् ५३१ या उसके कुछ पूर्व का है। अत: यदि उपर्युक्त गाथा के ५८५ को शक संवत् मान लिया जाय तो दोनों में संगति बैठ सकती है। पुन: हरिभद्र की कृतियों में नन्दीचूर्णि से भी कुछ पाठ अवतरित हुए हैं। नन्दीचूर्णि के कर्ता