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________________ * चारित्रशुद्धिसम्पादकभाषाप्रयोक्तृमुनिस्वरूपख्यातिः अथ कीदृशस्येयं भाषा चारित्रं विशोधयतीत्याह । ३३५ 'महेसिणो धम्मपरायणस्स अज्झप्पजोगे परिणिद्विअस्स । भासमाणस्स हियं मियं च करेइ भासा चरणं विसुद्धं । । ९८ ।। धर्मे = चारित्रधर्मे, परायणस्य = नित्यमुद्युक्तस्य, तथा अध्यात्मयोगे = परद्रव्यप्रवृत्तिनिवृत्तिप्रादुर्भूतप्रभूतगुणग्रामरामणीयकम अजिज्ञासितार्थाभिधानस्यानवधेयत्वात्प्रथममधिकारिजिज्ञासामुत्थापयति अथेति । इयं भाषेति । युक्त्यागमानुसारि गुणदोषमीमांसाप्रयोज्या भाषा । परद्रव्येति । परद्रव्यविषयकप्रवृत्तेः निवृत्त्या प्रादुर्भूतानां प्रभूतानां = महार्घ्यानां गुणानां ग्रामेण =समूहेन रामणीयकमये=लोकोत्तराह्लादजनकज्ञानविषये । प्रादुर्भूतेत्यनेनैकान्तासत्कार्यवादः प्रत्युक्तः । परद्रव्यविशेष्यकस्वभिन्नत्वप्रकारकनिश्चयेऽनेकशो भाविते सति स्फटिकोपरागस्थानीयोऽशुद्धोपयोगपरिणामो विलीयते । ततः परद्रव्यप्रवर्त्तनस्याऽपि निवृत्तिर्जायते निमित्ताभावे नैमित्तिकाभावात् न च दण्डविनाशेऽपि घटोपलब्धेर्व्यभिचार इति वाच्यम्, पूर्वोत्तरभावस्थले तथात्वेऽपि सहभावेन निमित्तनैमित्तिकभावस्थले स्फटिकोपरागाद्यनुरोधेन निमित्तविशेषाभावस्य नैमित्तिकाभावव्याप्यत्वसिद्धेः । इत्थमेव 'जीयमाने च नियमादेतस्मिंस्तत्त्वतो नृणाम्। निवर्तते स्वतोऽत्यन्तं कुतर्कविषमग्रहः।।८६।। इति योगदृष्टिसमुच्चयवचनमप्युपपद्यते । तादृशनिश्चयश्चोपदेशरहस्यादिदर्शितदिशा कार्यः । तदुक्तं तत्र 'देहं गेहं च धणं सयणं मित्ता तहेव पुत्ता य । अण्णा ते परदव्वा एहिंतो अहं अण्णो ।। आयसरूपं णिच्चं अकलंकं नाणदंसणसमिद्धं । णियमेणोवादेयं जं सुद्धं सासयं ठाणं । । (उप.रह श्लो. १९९-२००) तदुक्तं अध्यात्मबिन्दौ अपि 'स्वत्वेन स्वं परमपि परत्वेन जानन् समस्ताऽन्यद्रव्येभ्यो विरमणमितश्चिन्मयत्वं प्रपन्नः । स्वात्मन्येवाभिरतिमुपयन् स्वात्मशैली स्वदर्शीत्येवं कर्ता कथमपि भवेत् कर्मणां नैष जीवः । । ( अ.बि. १/२६) । कार्य की सर्वथा (एकान्ततः) अनुज्ञा भी नहीं है और किसी भी कार्य का सर्वथा निषेध भी नहीं है। जैसे लाभ (= नफा) का आकांक्षी व्यापारी लाभ और नुकशान की तुलना कर के जिसमें अधिक लाभ हो उसमें प्रवृत होता है, चाहे उसमें प्रवृत होने पर अवर्जनीय अल्प नुकशान क्यों न हो? ठीक वैसे मुनि को भी शास्त्र और युक्ति के बल से लाभलाभ का विचार कर के जिसमें अधिक लाभ हो उसमें प्रवृत होना चाहिए । श्री धर्मदासगणी के वचन का पर्यालोचन करने से भी यह प्रतीत होता है कि शास्त्र और युक्ति के अनुसार गुण-दोष की विचारणा करने के पश्चात् जिसमें अधिक गुण का लाभ संभव हो उसमें प्रवृति करना ही परमार्थ से जिनाज्ञा का पालन है। अतः शास्त्र के अनुसार तथा युक्ति से सोच-समझ कर अधिक गुण का लाभ जिसमें प्रतीत हो, संभव है स्थूलदृष्टिवाले अन्य लोगों से कदाचित् वह शास्त्र के विरुद्ध भी जाना जाए, उसमें प्रवृत्ति करने में जिनाज्ञा का पालन ही सिद्ध होता है। उसे आज्ञाविरुद्ध, मिथ्या प्रवृत्ति इत्यादि कहना ही आज्ञा से विरुद्ध है । । ९७ ।। 'यह भाषा किसके चारित्र को विशुद्ध करती है ?' इस शंका का समाधान प्रकरणकार ९८ वीं गाथा से बताते हैं । * भाषाविशुद्धि का फल गाथार्थ :- धर्मपरायण, अध्यात्मयोग में परिनिष्ठित ऐसे महर्षि - मुनिराज के, जो हित और मित बोलते हैं, चारित्र को यह भाषा विशुद्ध करती है । ९८ । विवरणार्थ :- चारित्र धर्म में सदा उद्योग करनेवाले महर्षि का अन्य विशेषण है अध्यात्मयोग में परिनिष्ठित । अध्यात्म योग का अर्थ है अपने स्वभाव में रहना, जो कि धन, पुत्र, परिवार, पत्नी, मकान, देह इत्यादि परद्रव्यविषयक प्रवृत्ति की निवृत्ति से प्रकट हुए अनेक गुणों के समूह से अत्यंत रमणीय और मनोहर है। ऐसे अध्यात्मयोग की निष्ठा =समाप्ति को प्राप्त तथा भविष्य में गुणावह, परिमित और अवसरोचित मृदु भाषण करनेवाले महर्षि की भाषा चारित्र को विशुद्ध यानी विपुल निर्जरा में प्रवीण= तत्पर बनाती है।।९८ ।। प्रदर्शित विशेषण से विभूषित महर्षि की वाणी चारित्र को अत्यंत विशुद्ध करती है- इसके बाद क्या होता है ? इस १ महर्षेर्धर्मपरायणस्य अध्यात्मयोगे परिनिष्ठितस्य । प्रभाषमाणस्य हितं मितं च करोति भाषा चरणं विशुद्धम् । । ९८ ।।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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