________________
* सावद्यनिरवद्यवचनानभिज्ञस्य देशनानधिकारित्वम् *
३२१
तथा 'सुक्रीतमेतत्, सुविक्रीतमेतत्, अक्रयार्हमेवैतत् क्रयार्हमेवैतत्, तथेदं समर्घं भविष्यति, महार्घं वा भविष्यति' इत्यादि न वदेत्, अप्रीत्यधिकरणादिदोषप्रसङ्गात् ।
अभिधानप्रयोजने तूपस्थिते सम्यक् = तात्पर्यशुद्ध्या, विधिभेदं = विधिविशेषं ज्ञात्वा निरवद्यमेव' भाषेत । तथाहि ग्लानप्रयोजने प्रयत्नपक्वमेतत् 'सहस्रपाकादीति वदेत्। 'प्रयत्नच्छिन्नमेतद्वनादीति साधुनिवेदनादौ वदेत् ।
क्रीतादिप्रशंसानिषेधार्थमाह तथा सुक्रीतमिति । किञ्चित् केनचित् क्रीतं दर्शितं सत् सुक्रीतमेतदिति न व्यागृणीयादित्यर्थः। एवमग्रेऽपि योज्यम् । तदुक्तम् 'सुक्कीअं वा सुविक्कीअं, अकिज्जं किज्जमेव वा । इमं गिण्ह इमं मुंच पणीअं नो विआगरे' ।। (द. वै. ७/४५) उपलक्षणात् 'अहो! मुग्धोऽसि यदनेन मुल्येनेदं गृहीतमित्यादि न वक्तव्यम्। समर्घमिति। इदं मुञ्च गुडादि अनागतकाले समघ भविष्यति इदं घृतादि गृहाणाऽऽगामिनि काले महा भविष्यतीति हेतोः । न वदेदिति सर्वत्र योज्यम् ।
ज्ञात्वेति। अनेनाऽज्ञात्वेत्यस्य निषेध उक्तः । तदुक्तं महानिशीथे 'सावज्जणवज्जाणं वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वोत्तुंपि तस्स न खमं किमंग पुण देशणं काउं ? | | ( म. नि. ३ / १२० ) । ग्लानप्रयोजन इति । यद् भवतां प्रयत्नपक्वं सहस्रपाकादि तद्दीयतामित्येवम् । आदिशब्देन लक्षपाकादेः ग्रहणम् । प्रयत्नच्छिन्नमेतद् वनादीति । आरम्भकसंयोगविरोधिविभागानुकूलक्रियाजनकातीतकालीनकृतिविशेषविषयं पुरोवर्ति स्वतः सिद्धानियमितवृक्षसमूहादीत्यर्थः । साधुनिवेदनादाविति । 'प्रयत्नच्छिन्नमेतद् वनम् । अतो न श्वापदादिभयं, निर्भरतया गन्तव्यमित्येवमादिरीत्या । एवं च मुनासिब है ? नहीं, अतएव इन वचनों को बोलना साधु के लिए अनुज्ञात नहीं है।
तथा सुक्री. इति । तथा पण्य वस्तु के बारे में (१) 'यह माल अच्छा खरीदा' अर्थात् यह माल बहुत सस्ता आया । (२) 'यह माल अच्छा बेचा' अर्थात् बहुत नफा हुआ। (३) यह माल खरीदने योग्य नहीं है, (४) यह माल खरीदने योग्य है, (५) 'यह माल सस्ता होनेवाला है' अर्थात् इस माल को बेच डालो, (६) यह माल महंगा होनेवाला है अर्थात् इस माल को ले लो - इत्यादि वाक्य बोलना भी मुनि के लिए निषिद्ध है। स्पष्ट ही है कि प्रदर्शित वचन का प्रयोग होने पर जिसको नुकशान होनेवाला है उसे साधु के प्रति अप्रीति होती है तथा प्रदर्शित वचन का प्रयोग होने पर जिसको लाभ होने वाला है उसे साधु के प्रति प्रीति होना, साधु के लिए अच्छे आहार आदि बना कर साधु को दोषित आहार बहेराना, व्यापाररूप सावद्य कार्य में प्रवृत्त होना, आदि अनेक दोष संभवित है। अन्य लोग को यह महसूस होता है कि 'संसार छूटा पर संसार एवं धंधा का रस न छूटा, रस्सी जल गई पर ऐंठन न गयी!' इस तरह साधु की लघुता भी हो सकती है। अतः भाषाविवेकसंपन्न महात्मा के लिए तादृश वचनप्रयोग निषिद्ध है ।
शंका :- जब गृहस्थ स्वयं ही साधु से प्रश्न करे कि "महाराज साहब, मैंने यह चीज खरीदी है। आपको यह चीज कैसी लगती है ? इन चीजों में से कौन सी चीज खरीदनी चाहिए? इस चीज को बेचने के बाद इसकी किंमत बढ तो न जाएगी न?" - तब साधु भगवंत को गृहस्थ से क्या कहना उचित है ? तथा पक्व तैल आदि स्थल में भी क्या बोलना चाहिए?
समाधान :- अभिधा. इति । कुछ न कुछ बोलने का प्रयोजन उपस्थित होने पर साधु को निरवद्य भाषा ही बोलनी चाहिए। इसके लिए बोलने का प्रसंग उपस्थित हो उसके पूर्व में ही गुरुगम से शास्त्र के तात्पर्य का पर्यालोचन कर के शास्त्रोक्त भिन्नभिन्न विधि को जानना भी आवश्यक है। बाद में आवश्यकता के अनुसार गुण-दोष का अन्वेषण कर के निरवद्य भाषा को ही बोलना चाहिए। प्रदर्शित सुपक्व आदि स्थल में प्रयोजन उपस्थित होने पर क्या बोलना ? इसका संक्षेप में यहाँ बयान किया जाता है। देखिए, जब कोई मुनिराज ग्लान होने के सबब सहस्रपाक आदि तैल की, जो अच्छी तरह पकाया गया है, जरूरत हो तब गृहस्थ से ऐसा कथन करना चाहिए कि आपने उद्योग कर के जो सहस्रपाक तैल बनाया है उसकी हमें जरूरत हैं। इस तरह बोलने से गृहस्थ के आरंभ की अनुमोदना, जो 'सहस्रपाक अच्छी तरह बनाया गया है' - इस वाक्य को बोलने पर हो जाती है, नहीं होती है और साधु के इष्ट कार्य की सिद्धि भी होती है। इस तरह साधु भगवंत से मार्ग बताना आदि प्रयोजन उपस्थित हो, जिसमें अच्छी तरह कटे गए अरण्य को बताना जरूरी बन जाता है, तब प्रयत्नच्छिन्न शब्द का प्रयोग करना चाहिए। जैसे, 'आप बेखौफ बन कर उस जंगल में बिहार कीजिएगा, क्योंकि भारी कोशिश से वह कटा गया है'। इस तरह बोलने पर अरण्यच्छेदन की अनुमति नहीं १ 'द्यमव.' इत्यशुद्धः पाठः मुद्रितप्रतौ मूलगाथोक्त-चियं शब्दस्यालंनतापत्तेः ।