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________________ * इच्छाद्वैविध्यनिरूपणम् * २६१ अथेच्छानुलोमामाह-निजेप्सितत्वं स्वेच्छाविषयत्वं तत्कथनं चेच्छानुलोमा ज्ञेया, या कश्चित् किञ्चत्कार्यमारभमाणःकञ्चन पृच्छति (ग्रन्थाग्रम्-श्लोक ८००) 'करोम्येतत्?' इति। स प्राह-करोतु भवान् ममाप्येतदभिप्रेतमिति। अत्र चाप्तेच्छाविषयत्वेन स्वेष्टसाधनत्वशङ्काप्रतिरोधेन तन्निश्चयात्स्वेच्छाया अविलम्बन प्रादुर्भावादिच्छानुलोमत्वम् । निषेधाऽविषयेऽपि पुरुषे आगमोक्तबाह्यलिङ्गादितो निषेधविषयत्वज्ञानदशायां निषेधकरणे असत्यामृषात्वव्याप्यप्रत्याख्यानीयत्वमपि न विरुध्यते इत्याभाति । ___ ननु निषेधप्रतिज्ञा प्रत्याख्यानीत्येव वक्तुमर्हति निषेधविषय इत्यस्य व्यर्थत्वादिति निरर्थकघटकघटितमदेतल्लक्षणमिति चेत्? मैवम् निषेद्भुमर्हे वस्तुन्येव निषेधस्य प्रत्याख्यानीत्वं न तु निषेधानहे वस्तुनीति ज्ञापनाय तदुपादाम् । एतेन 'दीक्षां नैव ग्रहीष्यामी'त्यादिनिषेधवचनस्य प्रत्याख्यानीबहिर्भावो व्यज्यते निषेधाविषये निषेधप्रतिज्ञारूपत्वात् जिनसाध्वादिविषयकद्वेषादिनिसृतत्वेन परमार्थः मृषात्वात्। अत एव लोभादिप्रत्ययिकनिषेधस्याऽप्यप्रत्याख्यानीत्वमवसेयम् लोभनिःसृतत्वेनाऽसत्यत्वात् स्वव्यापकाभावेनाऽप्रत्याख्यानीत्वसिद्धेरित्यादिकं यथागमं पर्यालोचनीयम्। इच्छानुलोममिति। अनुलोमत्वं चात्र कार्यसहकारिकारणत्वरूपं ग्राह्यं न तु स्वपक्षपातित्वरूपम्। ततश्चेच्छासहकारिकारणवचनत्वमिच्छानुलोमत्वमित्यर्थः । स्वेच्छाविषयत्वमिति स्वपदेन पर्यनुयुक्तो ग्राह्यो न तु पर्यनुयोक्ता। तत्कथनमिति। पर्यनुयुक्तेच्छाविषयत्वमप्रतिपादनिमत्यर्थः । पर्यनुयोक्तुः पर्यनुयुक्तेच्छाविषयत्वज्ञाने सति तद्विषयिण्याः स्वेच्छाया जायमानत्वेन सान्वर्थमिदमभिधानमित्याशयेनऽऽह अत्र चेति। आप्तेच्छाविषयत्वेनेति पर्यनुयोक्तृज्ञातायाः पर्यनुयुक्ताप्तेच्छाया विषयत्वेन। तन्निश्चयादिति स्वेष्टसाधनत्वनिश्चयात् । अयं भावः ज्ञानादिच्छा ततः कृतिः ततः प्रवृत्तिर्जायते। ततः तत्तत्प्रवृत्तिं प्रतीच्छायाः प्रयोजकत्वं लभ्यते। प्रवृत्तिहेत्विच्छायाः स्वेष्टसाधनत्वादिनिश्चयजन्यत्वेन स्वेष्टसाधनत्वादिनिश्चयार्थ पुरुषः स्वाप्ताभिप्रायें ज्ञातुमाप्तपुरुषं पर्यनुयुङ्क्ते । प्रदर्शितप्रत्युत्तरज्ञानादाप्तेच्छाविषयत्वं ज्ञायते। आप्तेच्छाविषयत्वस्य स्वेष्टसाधनत्वव्याप्यत्वज्ञानाच्चिकीर्षितविषयकस्वेष्टसाधनत्वचलितप्रतिपत्तिः प्रतिरुध्यते, आप्तेच्छाविषयत्वज्ञानोन्नीतस्वेष्टसाधनत्वनिश्चयः स्वेष्टसाधनत्वशङ्काप्रतिबन्धकत्वात्। अत्रानुमानाकारश्चैवम् 'इदं मदिष्टसाधन् मत्कर्तव्यतया आप्ताभिप्रेतत्वात् स्वेष्टसाधनत्वनिश्चयात्तद्विषयककृतिजनकेच्छा द्रुतं प्रादुर्भवतीति निजेप्सितत्वकथने स्वेच्छासहकारिकारणत्वरूपमिच्छानुलोमत्वं निराबाधमित्यर्थः । भाषा भी प्रार्थितनिषेधक वचन की तरह निषेधभाषारूप है। अतः प्रत्याख्यानी भाषा का लक्षण यह फलित होता है कि - निषेध के विषय में निषेध की प्रतिज्ञा ही प्रत्याख्यानी भाषा है। अतः अन्य से प्रार्थित वस्तु या सावधव्यापार आदि के निषेध की प्रतिज्ञा में प्रत्याख्यानी भाषा के लक्षण का आसानी से निर्वाह हो सकता है। प्रत्याख्यानी भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ। * इच्छानुलोमा भाषा ७/४ * अथेच्छा. इति । अब प्रकरणकार ७६ वीं गाथा के पश्चार्द्ध से इच्छानुलोम भाषा का, जो असत्यामृषा भाषा का ७ वाँ भेद है, निरूपण करते हैं कि अपनी इच्छा का कथन करना यह इच्छानुलोम भाषा है। आशय यह है कि कुछ काम का प्रारंभ करता हुआ पुरुष किसी को पूछता है कि 'मैं यह काम करूं?" तब जिसे प्रश्न किया गया है वह कहता है कि - 'आप यह काम करो, मुझे भी यह इष्ट ही है'। यह प्रत्युत्तर इच्छानुलोम भाषा है, क्योंकि प्रत्युत्तर देनेवाला अपनी इच्छा की विषयता स्वेष्टता का प्रतिपादन करता है। इच्छनुलोम का अर्थ है इच्छा का सहकारिकारण। किसी भी चीज की इच्छा तब होती है जब 'यह मेरे इष्ट का साधन है' ऐसा निश्चय होता है। अमुक प्रवृत्ति या चीज मेरे इष्ट सुख आदि का साधन है या नहीं? ऐसी इष्टसाधनत्व की शंका होती है तब पुरुष 'अपने आप्त पुरुष का इस विषय में क्या अभिप्राय है?' यह जानने का उत्सुक होता है और अपने मान्य पुरुष को यह प्रश्न करता है कि 'मैं यह करूं?' तब वह मान्य पुरुष यदि ऐसा उत्तर दे कि 'करो भाई, मुझे भी यह अभीष्ट है' तब श्रोता को यह मालुम होता है कि - यह कार्य मेरे आप्त पुरुष को अभीष्ट है। इससे श्रोता को यह निश्चय होता है कि 'यह मेरे इष्ट
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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