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________________ १२८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २९ ० तत्त्वोपप्लवसिंहकृन्मतनिराकरणम् ० तदव्यतिरेकादतिरिक्तसत्त्वनिषेधादित्यन्यत्र विस्तरः। 'घटो मार्तत्व-पूर्वत्व-वर्तमानकालीनत्व-नवत्व-देवदत्तस्वामिकत्व-यज्ञदत्तकृतत्व-चैत्रलब्धत्व-मैत्रहृतत्व-घटपदवाच्यत्व-स्वीकृतप्रतिनियतसंस्थानत्व-लोचनजप्रतिपत्तिविषयत्वादिना सन् तन्तुजनितत्वापरत्वातीतकालीनत्व-पुराणत्वयज्ञदत्तस्वामिकत्वदेवदत्तकृतत्व-मैत्रलब्धत्व-चैत्रहृतत्व-पटादिपदवाच्यत्वास्वीकृतसंस्थानत्व-घ्राणजप्रतिपत्तिविषयत्वादिना त्वसन्' इत्याद्यनुभवात्। एतेन 'पररूपेण न भावः नाप्यभावः अपि तु स्वेन रूपेण भाव एकात्मकः । एकं हीदं वस्तूपलभ्यते तच्चेदभावः किमिदानो भावो भविष्यति? तद्यदि पररूपतयाऽभावः तदा घटस्य पररूपता प्राप्नोति यथा पररूपतया भावत्वेऽङ्गीक्रियमाणे पररूपानुप्रवेशः तथाऽभावत्वेऽपि अङगीक्रियमाणे पररूपानुप्रवेश एव ततश्च सर्वं सर्वात्मकं स्यात् (तत्त्वो. पृ. ७६) इति तत्त्वोपप्लवसिंहे जयराशिभट्टेनोक्तं तन्निरस्तम पटाद्यपेक्षयाऽकारणत्वेऽङ्गीक्रियमाणे दण्डादौ पटादिस्वरूपाननुप्रवेश इव पटाद्यपेक्षयाऽभावत्वे स्वीक्रियमाणे घटे पटादिस्वरूपाननुप्रवेश्य न्याय्यत्वात् अभावत्वेन रूपेण पटादिस्वरूपानुप्रवेशे चेष्टापत्तेश्च। तदुक्तं सप्तभंगीतरंगिण्यां- 'भावधर्मयोगाद् भावात्मकत्ववदभावधर्मयोगादभावात्मकत्वस्यापि स्वीकरणीयत्वात्' (स.त.पृ. ८३)। स्वपरपर्यायात्मकत्वेन सर्वस्य सर्वात्मकत्वाभ्युगमात्, अन्यथा वस्तुस्वरूपस्यैवाऽघटमानत्वादिति षड्दर्शनसमुच्चयबृहद्वृत्तायुक्तं, अधिकं ततो ज्ञेयम् । सत्त्वासत्त्वयोर्व्यञ्जकत्वं विहाय घटकत्वानुधावनं किमर्थम्? इत्यत आह सत्त्वासत्त्वघटकत्वं च तदव्यतिरेकात् द्रव्यादिचतुष्टयाभिन्नत्वात् । तदपि कुतः? इत्याह अतिरिक्तसत्त्वनिषेधादिति। अत्र सत्त्वपदमसत्त्वस्योपलक्षणं तेन द्रव्यादिचतुष्टयातिरिक्तिसत्त्वाऽसत्त्वनिषेधादित्यर्थः स्वपरद्रव्यादिभ्यो व्यतिरिक्तयोः सत्त्वासत्त्वयोरनुपलब्धेरिति शेषः। अत्रैकान्तवादिनः किञ्चित् समीक्षामहे । यत्तु न्यायभूषणे- 'स्याद्वादे हि जीवोऽप्यजीवः स्यादजीवोऽपि जीवः स्यादिति कुतस्तयोर्व्यवस्था?' इत्युक्तं तन्मन्दम् जीवोऽजीवापेक्षया न जीव इत्यजीव इत्येवमनभ्युपगमात्, अभावपरिणतेः परापेक्षत्वेऽपि भावपरिणतेः स्वद्रव्याद्यपेक्षत्वात्, वस्तुनः तत्तदपेक्षागर्भतत्तदनेकपर्यायकरम्बितत्वात्तथाप्रयोगे तत्तदपेक्षालाभार्थं स्यात्कारप्रयोगान्नातिप्रसंगः 'उदिते होतव्यं' 'अनुदिते होतव्यं' इत्यादिविरुद्धवेदवाक्यानां प्रामाण्यमपेक्षाभेदं विना कथमुपपादनीयम्? यत्तु समुदायापेक्षया हि पङ्कजशब्दस्य पदत्वमवयवापेक्षया तु वाक्यत्वमेवं (न्या.सि.दि.पृ. ५९) इति शशधरशर्मणोक्तं तदपि स्याद्वाद एव शोभते। ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्ये - जीवादिषु पदार्थेषु एकस्मिन् धर्मिणि सत्त्वासत्त्वप्रतियोगी आदिरूप व्यंजकनिमित्त रहता है जैसे कि - आँवले की अपेक्षा अंगुर छोटी है - इस प्रतीति में आँवला अंगुर में रहनेवाले छोटेपन का प्रतियोगी है। अर्थात् आँवला तटस्थ रह कर अपनी अपेक्षा से अंगुर में रहे हुए छोटेपन को बताता है। जब कि सत्त्वअसत्त्व स्थल में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप घटकात्मक निमित्त के भेद से एक स्थल में सत्त्व-असत्त्व रहता है। आशय यह है कि एक वस्तु में अणुत्व-महत्त्व की प्रतीति के समावेश के निमित्त क्रम से सन्निहित महान् और अणु द्रव्यान्तर, ये व्यंजक निमित्त होते हैं और एक वस्तु में सत्त्व और असत्त्व की प्रतीति के समावेश के निमित्त क्रमशः स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव होते हैं जो कि सत्त्व और असत्त्व के घटक निमित्त होते हैं। स्वद्रव्यादि चतुष्क सत्त्व का और परद्रव्यादि चतुष्क असत्त्व का तटस्थ व्यंजक नहीं होता, किन्तु उसका घटक होता है, क्योंकि उसके बिना वस्तु का सत्त्व और असत्त्व उपपन्न नहीं हो सकता। वस्तु की सत्ता अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को छोड कर अतिरिक्त नहीं होती है, वैसे ही वस्तु की असत्ता पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को छोड कर अतिरिक्त नहीं होती है, क्योंकि स्वद्रव्यादि से अतिरिक्त सत्ता और पर द्रव्यादि से अतिरिक्त असत्ता का निषेध है। स्वद्रव्यादि से अतिरिक्त वस्तु की सत्ता का ज्ञान नहीं होता है और पर द्रव्यादि चतुष्क को छोड कर वस्तु की असत्ता का भान नहीं होता है। मिट्टीद्रव्य, स्वावगाहनाक्षेत्र, स्वकाल और रक्तत्वादि स्वभाव को छोड कर घट का उपलंभ कभी भी नहीं होता है। अतः
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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