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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् नल दमयन्ती की कथा तक्षशिला जाकर कदम्ब राजा को अपने स्वामी का सन्देश गर्व सहित कहा। हे कदम्ब! मेरे स्वामी अर्ध भरत के ईश हैं। राजा नल स्वयं अपनी कृपापूर्वक खुशी से तुम्हें आज्ञा प्रदान करते हैं कि हमारे चरण-कमलों की रज अपने भाल पर लगाकर हमारी आज्ञारूपी मुकूट को धारणकर बिना किसी भय के राजा बनो। अगर ऐसा नहीं करोगे, तो तुम्हारे राज्य के राजा, प्रधान, मित्र, कोष, राष्ट्र, दुर्ग व सैन्य-इन सात अंगों का विनाश हो जायगा। अर्थात् तुम्हारे राज्य के सातों अंग नष्ट कर दिये जायेंगे। जैसे कि अन्त तक सुकृत करनेवाले महाऋषि का शील भ्रष्ट हुआ। और तुम्हारा क्या हित कहुँ? मैं तो अतिथि दूत हूँ। अज्ञान से अन्यथा करने पर आपका ही संहार होगा। तब कदम्ब ने उपहास सहित अवज्ञा से कहा-हमारे द्वारा सुना गया है कि नल तो तृण विशेष की तरह है। तो क्या तिनके को भी कोई नमता या पूजता है? अथवा तृण भी किसी पर प्रसन्न होता है? हे दूत! तुम्हारे जैसे बोलनेवाले बहुत देखे। दूत ने कहा-आपने गलत सुना है। सम्राट नल तृण नहीं है, बल्कि जो मुँह में तृण दबाकर उनकी शरण में आते हैं, उन तृणधारियों की वे रक्षा करते हैं। अतः हे राजा! आपको भी नल से डरना चाहिए। नल राजा की अर्चना-आराधना करके उन्हें प्रसन्न करना चाहिए, जिससे आपकी भी रक्षा होगी। तब क्रोधित होते हुए कदम्ब राजा ने दूत को कहा-अरे! क्या मैं तुम्हें नाग के फंदे में ले जाकर छोडूं? दूत ने पुनः कहा-हे राजा! अगर तुम मुझे नाग-पड़ में ले भी गये, तो इससे क्या? केवल तुम ही महान् नहीं हो। हमारे यहाँ तो गाय के समान नासिकावाले सापों को बालक भी खेल-खेल में मार डालते हैं। इस प्रकार कदम्ब ने वक्र उक्ति के द्वारा जीते हुए दूत को कहा-राजा नल के यहाँ आने पर हम उत्तर देंगे। दूत ने अपने नगर लौटकर सभी युक्ति प्रयुक्तियों को कोशलाधिपति को आवेदन किया। ____ तब राजा ने हस्ति, अश्व, रथ व पैदल सेना के द्वारा सम्पूर्ण भूतल को कम्पित करते हुए संपूर्ण समूह के साथ तक्षशिला की ओर प्रयाण किया। राम ने जिस प्रकार वानर सेना द्वारा लंका को घेरा था, उसी प्रकार विचार करके राजा नल ने तक्षशिला के चारों ओर सैनिक व्यूह की रचना की। दूत के द्वारा कदम्ब को कहलवाया कि अभी भी समय है, मान जाओ। क्यों अकाल में ही अपनी प्रिया को विधवा बनाना चाहते हो? कदम्ब ने कहा-क्या तुम बच्चे हो? नल तुम उन्मत्त क्यों होते हो? अथवा शत्रुरूपी सों के समूह से विमना होकर अपने आपे में नहीं हो। क्या तुम्हारे मंत्रियों में कोई भी विवेकी नहीं है, जो कि बिना विचारे युद्ध में प्रवृत्त नल को रोक सके। हाँ! ज्ञात होता है कि हे नैषधि! निश्चय ही तुम जीवन से निर्विग्न हो गये हो। हे दूत! शीघ्र ही जाओ। मैं भी ऐसा ही रणलम्पट हूँ। दूत से कदम्ब के कहे हुए अहंकार से दुर्द्धर वचन सुनकर नल ने युद्ध प्रिय सैनिकों को कवच की तरह बनाया। कदम्ब भी अभ्य-मित्रादि से घिरा हुआ बाहर निकला। गिरिकन्दरा से सिंह की तरह त्रिपृष्ठ द्वार में आया। उन दोनों में युद्ध शुरू हुआ। पहले धनुष बाण से, फिर खङ्ग-खङ्गी एवं बाद में कुन्ता-कुन्ती का युद्ध हुआ। तब राजा नल ने कदम्ब से पूछा-इन कीड़ों का कुटन करने से क्या फायदा। हम दोनों का वैर है अतः युद्ध भी केवल हम दोनों में ही होना चाहिए। दोनों ही नरेन्द्र युद्ध-कुशल वीर थे। जयश्री का वरण करने के लिए बाणों से बादलों की तरह आकाश को भर दिया। नल राजा ने तलवार के अग्रभाग से कदम्ब के हाथी को गिराकर शिलीमुख कर दिया। जो-जो भी अस्त्रशस्त्र कदम्ब छोड़ता था, राजा नल उसे उत्सर्ग को अपवाद की तरह काट देता था। नल मेरे संपूर्ण क्षात्र-तेज को बुझा देगा। तो क्या मैं दर्प से अंधा होकर शलभ की मौत मरूँगा? इस प्रकार मन में विचार करके उस स्थान से भाग करके कदम्ब ने दीक्षा ग्रहण की और कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। उसे 44
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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