SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उदायन राजा की कथा सम्यक्त्व प्रकरणम् करनी चाहिए, अन्यथा अवरोधक के अभाव में अनन्त आकाश की तरह कषाय बढ़ता जाता है। अंतः कोडाकोडी वर्ष तक संयम पालवाला मनुष्य मुहूर्त भर की स्थितिवाले कषाय से हार जाता है, जैसे धनवान जुए में लक्ष्मी हार जाता है। अतः प्रद्योत के अकार्य को मिथ्यादुष्कृत पूर्वक उसके अपराध को क्षमा करके, स्वयं उदायन राजा ने उसे मुक्त किया। अवन्तीपति ने भी कहा-मेरे द्वारा अनुचित किया गया है। आप क्षमा के योग्य हैं। अतः मुझे क्षमा करें। तब उदायन राजा ने प्रसन्न होकर उज्ज्वल मन से उसके भाल पर लिखे अक्षर छिपाने के लिए स्वर्ण के पट्टे से उसके मस्तक को बाँधा। पट्टबन्ध होने से प्रद्योत भी प्रसन्न हुआ। उस पट के सामने ऐश्वर्य सूचक मुकूट बाँधा गया। उदायन ने अपने पूर्व के कीर्तिस्तम्भ रूप सामन्त बनाकर प्रद्योत को अवन्ती के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। वर्षाकाल बीत जाने पर वीतभय नरेश बिना किसी भय के वीतभय नाम के अपने नगर को गया। व्यापारी आदि भी सभी पुनः वहाँ प्रतिष्ठित हो गये। अनेक प्रकार के व्यवहार द्वारा अन्य लोग भी वहाँ आकर बस गये। जहाँ पर वर्षाकाल के दौरान राजा उदायन दश राजाओं के साथ शिविर लगाकर ठहरा था, वह स्थान दशपुर नगर के नाम से विख्यात हुआ। इस प्रकार उदायन राजा ने इंद्र के समान निर्दैत्य निःसंपन्न होकर चिरकाल तक अपने साम्राज्य का उपभोग किया। एक दिन उदायन राजा ने पक्खी के दिन पौषधशाला में रहकर पौषधव्रत ग्रहण किया। रात्रि में धर्मजागरणा करते हुए उस राजा के मन में पारिणामिक सुख देनेवाले इस प्रकार के परिणाम पैदा हुए-धन्य है वे, जिनके द्वारा बालवय में ही संयम ग्रहण किया जाता है, जिससे उन्हें किसी प्रकार के कर्मबन्ध का कारण नहीं प्राप्त होता। धन्य है वे ग्राम, नगर, पुर, पत्तन! जहाँ ज्ञातनन्दन श्री वीरप्रभु स्वयं विचरण करते हैं। जिनके मस्तक पर श्री वीरप्रभु के हस्त-कमल हैं, उनके भवोदधि के किनारे को पाने की क्या बात है? मैं भी धन्य हो जाऊँ! अगर सद्धर्म रूपी बगीचे में वर्षा करने वाले भगवान् महावीर यहाँ पधार जाएँ। इस प्रकार रात्रि बीत जाने पर प्रातः पौषध पारकर देवपूजा करके जब सभा में आकर उदायन राजा अपने सिंहासन पर आसीन हुआ। तब उद्यानपालक ने आकर बधाई दी कि पूर्वोद्यान में प्रभु महावीर का समवसरण लगा हुआ है। यह सुनकर उदायन अत्यन्त प्रमुदित हुआ। उसने विचार किया कि मेरे भावों को जानकर ही भगवान् अवश्य पधारे हैं। प्रिय वचनों को सुनकर खुश होते हुए राजा ने सिर्फ अधोवस्त्र छोड़कर धारण किये हुए सारे वस्त्राभूषण उद्यानपालक को दे दिये। प्रभु के राग से रंजितमना उसने अपने पुर को उत्तंभित ध्वजावाला बनाया। बंदियों को छोड़ दिया। फिर अंतःपुर परिवार सहित आनन्द से भरा हुआ राजा उदायन भगवान महावीर को वंदन करने के लिए आया। प्रफुल्लित नयनों से प्रभु को देखकर हाथों को मुकुट की तरह मस्तक से लगाकर जय-जय कार करते हुए वह स्वामी के नजदीक आया। तीन प्रदक्षिणा देकर भूमि पर मस्तक रखकर एकाग्र मन से उच्चवाणी में प्रभु स्तुति के श्लोक बोलने लगा। उचित भूप्रदेश में स्वामी के ऐश्वर्य से विस्मित वह राजेन्द्र विकसित आँखों से उस ऐश्वर्य को देख विस्मित रह गया। क्षीर, गुड़ व द्राक्ष से भी मधुर वाणी में जिनधर्म की व्याख्या सुनकर श्रेयसी भक्ति में निमग्न उसकी आँखें आनंदाश्रु से निमग्न हो गयीं। वीतराग वाणी सुनते ही राजा को इस प्रकार का संवेग उत्पन्न हुआ कि मैं अभी ही व्रत ग्रहण कर अपने मनोरथ सिद्ध करूँ। व्याख्यान पूर्ण होने पर प्रभु को नमस्कार करके अपने भवन में जाकर चिन्तन करने लगा कि यह राज्य किसको देकर मैं संयम ग्रहण करूँ? इस जन्म में यह राज्य अनेक अनर्थों 19
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy