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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् उदायन राजा की कथा का मूल है और परभव में दुर्गति का कारण है। अतः मैं अपने पुत्र को तो यह राज्य नहीं दूंगा। महासती प्रभावती की कुक्षि से उत्पन्न हुआ मेरा पुत्र इस राज्य के द्वारा अपनी भव-भ्रमणा न बढ़ा ले। मेरे बाद मेरा यह नगर उपसर्ग युक्त हो जायगा। मेरे पुत्र की देव की तरह ख्याति है, वह ख्याति कहीं अन्यथा न हो जाय। मेरा पुत्र अभीचिकुमार युवराज के रूप में ही भोगादि को भोगता हुआ सुखपूर्वक देशादि की पालना करेगा। इस प्रकार अपने मन में विचार करके अपने पुत्र के सक्षम होते हुए भी उदायन राजा ने अपना राज्य अपने भाणेज केशीकुमार को दे दिया। यथास्थिति सचिव सामन्त आदि को स्थापित करके दरिद्रता का घात करनेवाला महादान को आचरित किया। विस्तृत साम्राज्य को छोड़कर श्री वीरप्रभु के हाथों से शुद्ध मतिवाले उदायन ने परिव्रज्या ग्रहण की। श्री वीर जिनेन्द्र की आज्ञा से सुधर्मास्वामी के समीप श्रुत व चारित्र रूप द्वय शिक्षाओं को शीघ्र ही राजर्षि ने ग्रहण किया। ___ ग्यारह अंग को धारण करनेवाले मुनियों के मध्य विशिष्ट मतिवैभव के द्वारा सूत्र व अर्थ के ज्ञान द्वारा वे राजर्षि क्रमशः गीतार्थ हुए। फिर वीतराग प्रभु की आज्ञा से वे एकाकी विहार करते हुए महान् तैज रूप क्षमा को प्रसाधित करते हुए विचरते रहे। अनेक प्रकार के दुष्कर महातपों से अपनी आत्मा को तपाया। दुःसह्य परीषह रूपी सेना का सामनाकर विजयी बनें। इधर उदायन द्वारा अपने भाणेज केशीकुमार को राज्य देकर स्वयं आप्त दीक्षा स्वीकार कर लेने पर उदायन के पुत्र अभीचिकुमार ने विचार किया-मेरे राज्य के अधिकारी होते हुए, राज्य करने में योग्य होने पर, न्यायी होने पर भी अयोग्य की तरह पिता ने मुझे राज्य नहीं दिया। बल्कि इस राज्य को अपने भाणजे केशी को सौंप दिया। क्या मेरे पिता लोकाचार को नहीं जानते? यद्यपि मेरे विवेकी पिता द्वारा इस प्रकार किया गया है। फिर भी मैं उदायन का पुत्र इसका सेवक कैसे बनूँ? मेरी राज्य लक्ष्मी को दूसरों के द्वारा भोगते हुए मैं कैसे देख सकता हूँ? इस प्रकार विचार करके अभिमान के महाधन से युक्त होकर वह कूणिक राजा के पास चला गया। उधर उदायन राजर्षि एकबार व्याधि से पीड़ित हो गये। उस बीमारी के बढ़ने से वह हिमार्क के समान निस्तेज बन गये। शाकिनी के समान रोग से ग्रस्त होने पर भी उसके अंतर परिणाम वर्धमान रहे। तप से कृश होते हुए राजर्षि क्रमशः कृशतम होते चले गये। देह में रोग की स्थिति को जानते हुए भी देह की स्पृहा से रहित होकर वैद्यों के द्वारा औषध बताये जाने पर भी वे ग्रहण नहीं करते थे। अन्य समय किसी एक वैद्य ने उनके रुग्ण शरीर को देखकर कहा-भगवन्! आपकी देह रुग्ण होने से सशल्य है। मुनि ने कहा-महाभाग! देह को छोड़कर रोग रहेंगे भी कहाँ? कर्मसहित देहियों की देह रोगमय ही होती है। वैद्य ने कहा-यह सही है पर श्रेष्ठ गति को जाने के लिए यह देह एक मार्ग के समान है। अगर इसकी उपेक्षा की गयी, तो दुश्मन की तरह लक्ष्य दुःसाध्य हो जायगा। देह ही मुनियों के लिए धर्म का साधन है। धर्मार्थियों को देह के साधन के लिए भेषज का सेवन करना चाहिए। उस स्वजन वैद्य के द्वारा बार-बार मुनि को समझाकर व्याधि और व्याधि-चिकित्सा को जानकर उन्हें बताया। अनेक प्रकार के क्वाथ, पथ्य आदि के द्वारा इस व्याधि का समूलोच्छेद किया जा सकता है। लेकिन मोक्ष के पथिक सावध औषधि का सेवन नहीं कर सकते। मनि का याचना-पात्र सदा निरवद्य होता है। व्याधि की वृद्धि का निरोध करने के लिए केवल दही का भोजन स्वीकार किया। तब वे राजर्षि दही रूपी पथ्य का सेवन करते हए ग्राम-नगर में विचरने लगे। जहाँ दही सुप्राप्य होता, वहाँ ग्रहण कर लेते। एक बार उदायन राजर्षि विहार करते हए वीतभयनगर पहँचे। कहा गया हैसंक्रामन्ति मुनीन्द्रा हि मासे मासे दिनेशवत् । अर्थात् मुनि सूर्य की तरह प्रतिमास विहार करते हैं। 20
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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