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उदायन राजा की कथा
सम्यक्त्व प्रकरणम् मानो जीवित हो गयी। वे तीनों कुण्ड त्रिपुष्कर कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुए। जो आज भी जल व अन्न के निधान की तरह हैं। ___ तब वह प्रभावती देव सेना को आश्वासन देकर राजा से पूछकर अपने कल्पावास को लौट गया। अब वह उदायन राजा आगे बढ़ता हुआ मार्ग में आये हुए राज्यों के दुर्द्धर राजाओं को जीतता हुआ मालव मण्डल को प्राप्त हुआ। मालवेश चण्डप्रद्योत भी उदायन राजा को आया हुआ जानकर शीघ्र ही चतुरङ्गिणी सेना से आवृत्त होकर वीरता के साथ शत्रु के सामने आया। उन दोनों की सेनाएँ क्षमा व क्रोध में एक से बढ़कर एक थीं। अपने-अपने स्वामी की विजय की आकांक्षा को मन में धारण किये हुए रणांगन में आमने-सामने थीं। रण भेरी की गंभीर ध्वनि, धनुष की प्रत्यंचा की गूंज उठी ध्वनि को पैदा कर रही थी। मानों अद्वैतमत के शब्द की साक्षात् स्थापना हो गयी हो। अपने-अपने स्वामी के रण में धनुष-बाणों के द्वारा प्रवृत्त सुभटों द्वारा जय-लक्ष्मी से विवाह करने के लिए बाणों का मण्डप धारण किया गया प्रतीत होता था। कोई योद्धा हाथियों के मस्तक का छेदन करने के लिए आभरणों की तरह हाथी को आकर्षित करने के लिए मोती बिखेर रहे थे। कोई डोलते हुए हाथियों को वश में करने के लिए जयश्री प्राप्त करने के लिए विपक्ष पर मन्त्र जाप की तरह वाणी प्रहार कर वींध रहे थे। इस प्रकार रण के अत्यधिक बढ़ जाने से व अत्यधिक जनसंहार की संभावना से उदायन ने दूत के द्वारा चण्डप्रद्योत को कहलवायाहम दोनों की शत्रुता में इस प्रकार का जनक्षय उचित नहीं है। पृथ्वी पर धोबी का आयुष गधे की मृत्यु की तरह प्रतीत होता है। धोबी के लिए गधे की मृत्यु दुःखदायी होती है। वैसे हमारे लिए यह जनसंहार दुःखदायी होगा। इसलिए घोड़े व सेना आदि को छोड़कर हम दोनों का अकेले युद्ध करना ही उचित है। आरुद सेना हो या पदाति सेना-हम दोनों का रण तुल्य स्थिति में है। अतः हम दोनों प्रातः रथ पर आरुढ़ होकर युद्ध करेंगे। उदायन के दूत के सामने अवंती नरेश ने भी यही प्रतिज्ञा धारण की।
प्रातःकाल होते ही उदायन कवच धारण करके रथ पर आरुद होकर धनुष बाण से सुशोभित होकर ग्रीष्म काल के सूर्य की तरह दुर्दर्श प्रताप के साथ आगे आया उदायन का रथी मेरे रथी से परास्त नहीं होगा-ऐसा विचार करके प्रद्योत अपने अनिलगिरि हाथी पर सवार होकर आया। उसको हाथी पर चढ़ा हुआ देखकर उदायन बोलाअरे! नीच! भ्रष्ट-प्रतिज्ञा ही तेरी हार का कारण है। इस प्रकार कहकर धनुष लेकर उसकी डोरी की टंकार से सिंहनाद की तरह तत्क्षण प्रद्योत के हाथी को क्षुभित किया। वेग से अपने रथ की डोरी खींचकर जयश्री से क्रीड़ा करने की लालसा लिए साहस के साथ युद्ध करना प्रारंभ किया। चण्डप्रद्योत नृप के हाथी के पीछे रथ दौड़ाते हुए तीक्ष्ण मुखी बाणों के द्वारा वह धन्वी दुर्जनों को पृथ्वी तल पर गिराता चला जा रहा था। प्रद्योत के हाथी के पैरों को उदायन ने इस कदर बाणों से जकड़ दिया की वह अचल की तरह चलने में असमर्थ होता हुआ वज्र से आहत होने की तरह भूमि पर गिर गया। तत्क्षण उदायन ने प्रद्योत को केशों से पकड़कर प्रतिमा व दासी के चोर को शीघ्र ही बाँध लिया। फिर अपर विधि के विधान की तरह उसके भाल पर देवनागरी लिपि में दासीपति लिख दिया। अक्षर अंकित करके उसको दास की तरह धारण करके वीतभय के स्वामी राजा उदायन ने उज्जयिनी में प्रवेश किया। भय से उद्भ्रान्त वह दासी शीघ्र ही भाग गयी। कहा भी है
नान्यत् प्रतिविधानं हि महादोष विधायिनाम् । क्योंकि महापाप करनेवाले के लिए भागने के सिवाय अन्य कोई प्रतिविधान नहीं है।
उदायन ने वहाँ पर रही हुई अपनी उस प्रतिमा को देखकर तत्काल आनन्द से खिलकर पूजाकर के अभिवंदना की। तब उस प्रतिमा को अपने नगर में ले जाने के लिए वह उठाने लगा। पर वह प्रतिमा वज्रशिला की तरह इंच मात्र भी न हिली। पुनः अर्चना करके दोनों हाथों से अंजलि बनाकर राजा ने कहा-हे स्वामी! मुझसे क्या
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