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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् उदायन राजा की कथा स्थानं शृङ्गालिकायाः किं नष्टायाश्चण्डरोचिषः। अर्थात् तीव्र प्रकाश हो जाने पर गायब हुई गीदड़ी के लिए कौन सा स्थान छिपने के काबिल होता है? तब उदायन राजा ने दूत के द्वारा चण्डप्रद्योत को कहलवाया कि तुम्हारा दासीहरण करना युक्त नहीं है। तुमने अपने विनाश की चेष्टा की है। मांगने पर तो राजकन्या भी मिल जाती है, तो फिर दासी का तो कहना ही क्या? अतः इस दुष्कृत्य को दूर करने के लिए मस्तक मुंडवाकर आना चाहिए। जगत् में वही जीवन श्रेष्ठ माना जाता है जिसकी प्रशंसा सज्जनों की सभा में खुले दिल से की जाती है। दूसरों के देखते हुए भी अगर शक्ति हो, तो वह वस्तु (अभीष्ट वस्तु) छीनकर ग्रहण की जाती है और शक्ति न हो, तो परम भक्ति से प्रसन्न करके माँग ली जाती है। किंतु चोरी करके तुमने अपनी मृत्यु को पुकारा है। मेदकी को निकालने के लिए तुमने सर्प के मुख में हाथ डाला है। ज्यादा क्या कहूँ, अगर जानते हुए भी तुमने मोहित होकर यह अकार्य किया है तो तुम्हारी इस एक गलती को क्षमा किया जा सकता है। वह दासी तो हमारे द्वारा आपको वैसे भी दे दी गयी है, पर अगर जीना चाहते हो तो हमारी प्रतिमा वापस लौटा दो। तब अपनी भौहों को धनुष की तरह नचाते हुए कुछ हंसता हुआ चण्डप्रद्योत अवज्ञापूर्वक दूत से बोलातुम्हारे स्वामी के द्वारा यह सब अनुचित ही कहा गया है, जिसे तुम नहीं जानते हो। पिता द्वारा दिया गया राज्य भी लक्ष्यहीन के लिए शिर-नाश का कारण बनता है। दूत ने प्रत्युत्तर में कहा-यदि गृहस्वामी के व्यग्र रहने पर जंगली जानवर कुछ लेकर चला जाता है तो इसमें उसका क्या पौरुष है? महा ओजवाले यदि शक्ति होते हुए भी चोरी करते हैं, तो यह उनका बचपना है। रावण द्वारा सीता को चुराये जाने पर क्या राम ने सीता को वापस प्राप्त नहीं किया? इस प्रकार सुनकर क्रोधित होते हुए प्रद्योत ने अपने व्यक्तियों से कहा-इसका मुख स्याही से काला करके गले से पकड़कर इसे बाहर निकाल दो। इस प्रकार से अपमानित हुआ दूत अपने स्वामी के पास पहुँचा। उदायन राजा अपने दूत की ऐसी दशा देखकर अत्यन्त कुपित हुआ। ___ अपने रणकुशल हाथों में खुजली महसूस करके प्रद्योत को शिकस्त देने की इच्छा से उसके सामने जाकर युद्ध करने के लिए जीत की भेरी बजवायी। हाथी, घोड़े, पैदल सेना से घिरा हुआ मर्यादा से मुक्त सागर की तरह शौर्य को धारण किये हुए उदायन राजा आगे बढ़ा। दूसरी दिशा से प्रत्यक्ष दिशापालकों की तरह अनेक बद्धमुकुटवाले राजा भी उसके साथ आगे बढ़े। उस समय ग्रीष्मकाल अपने संपूर्ण यौवन पर था। लेकिन उदायन अपने तेज की उष्मा से कालजिह्वा की अवहेलना करता हुआ सूर्य राज की तरह श्रेष्ठ महायोद्धा, हाथों द्वारा, बाणों द्वारा संपूर्ण लोगों का शत्रु के समान हनन करता हुआ चला। ताप से उष्णांशु की तरह तृष्णा से अतिशय विह्वल बने सैनिकों ने हजारों हाथों से जल पीते हुए जलस्थान सूख गये। धातुमय मनुष्य पसीने से भीगे हुए शरीर से ग्रीष्मता के ताप से तपित होते हुए मानो पिघलकर द्रवरूप हो गये। अत्यधिक उष्णता से उत्तप्त धरती की रेत जन्तुओं को कढ़ाई में चनों की तरह पका रही थी। ___तब उदायन की सेना के सैनिक मरुभूमि के जंगलों में मृगतृष्णा से आकर्षित होकर लक्ष्यभ्रष्ट होते हुए स्खलित होते हुए, गिरते हुए, भूमि में लुण्ठित होते हुए मरे हुओं की तरह प्यास से आर्त्त होकर मूद चेतनावाले बन गये। उदायन अपनी सेना को पानी के लिए तड़पते देख क्लान्त हो गया। शीघ्र ही उसने प्रभावती देव द्वारा किये गये संकेत का स्मरण किया। स्मरण करते ही साधे हुए वेताल की तरह देव प्रकट हुआ। स्मरण का कारण पूछा। राजा ने तृषा की व्यथा कही। उस देव ने विशाल सेना के आदि, मध्य तथा अवसान में तीन कुण्ड की रचनाकर उसमें दिव्य जल भर दिया। उस जल से स्नान, पान आदि करते हुए सम्पूर्ण सेना अमृत की तरह उस जल को पीकर 16
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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